दागी लोग जब मूर्खोँ के दिवस मनाते है..
बेजुबाँ बुत शहिदोँ के हमेँ लानत लाते है..
यह देख मन करता है कि कदम रोक लूँ..
आग की भीषण लपट मेँ अपना बदन झोँक लूँ..
फिर आखिर इस जीवन मेँ रखा ही क्या है..
देशभक्तोँ के लिए ना जिये तो फिर जिया क्या है..
शायद थौङे डरपोक से हो गये है..
जूनून ए अरमाँ शायद सो गये है..
घिन्ऩ सी आती है ढोँगी नेताओँ की बातोँ से..
क्युँ नहिँ समझाती इन्हेँ जनता लातोँ से..
खोलो अपनी आँखे जो चुँधिया सी गई है..
सँभालो नब्ज को जो हो मरण सी रही हो..
क्या वोट रुपी फसल का मुल्य कभी वसूलोगे..
या हर बार कि तरह झोँपङियोँ मेँ रो लोगे..
ये नेता अपने रहे ना रहे स्वाभिमान अपना है..
वो पूर्वज भी अपने थे उनका दर्द भी अपना है..
नेता लोग फिताकाटी तक सीमित रहते है..
पर स्मारक बनाना यारोँ हमारे हि जिम्मे है..
अपना अतीत सहेजो उनका सँरक्षण करो..
ना कि उनकी बलिदानी यादोँ का भक्षण करो..
युवाओँ ये दुख केवल मेरा मत समझना तुम..
इस प्रश्न को सदा मस्तिष्क मेँ रखना तुम..
शायद उनके आशीर्वाद हमारे काम आ जाये..
आने वाली नस्लोँ को हमारा इतिहास दिख जाये..
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इँकलाब जिँदाबाद
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साभार :
बलवीर गिनथाला
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