जाट को एंटी-ब्राह्मण क्यों बोलते हैं:
क्योंकि इसके अंदर जांचने, परखने, आलोचनात्मकता और विश्लेषण करने की निर्भीक क्षमता होती है| आलोचना करने की इसकी क्षमता पे तो कहा भी गया है कि " छिका हुआ जाट राजा के हाथी को भी गधा बता दे|" और, वैसे तो यह बड़ा ही विवादित रहा है कि जाट हिन्दू हैं या वैदिक आर्य (क्योंकि सर छोटूराम जी अपना धर्म 'हिन्दू' नहीं अपितु 'वैदिक आर्य' बताते थे और कहते थे कि हिन्दू 'वैदिक आर्यों' का सबसेट (subset) है क्योंकि हिन्दू बाद में हुए और आर्य अनंत काल से थे| और इसका प्रमाण है भगवद गीता, रामायण और
महाभारत की मूल-प्रतियों में हिन्दू शब्द का कहीं वर्णन ना होना| इसलिए हिन्दू शब्द वैदिक आर्यन काल के बाद सम्भवत: बोद्ध काल की कृति है|) लेकिन फिर भी वर्ण-व्यस्था में इनको क्षत्रिय सुनता आया हूँ| तो जहां इनके समकक्ष अन्य क्षत्रिय जातियां ब्राहम्णों के सुझावों, परामर्शों, निर्देशों, उपदेशों को बिना किसी तर्क-वितर्क और प्रतिरोध के स्वीकार करती आई, वहीँ जाटों ने हर बार अपनी जांचने, परखने और विश्लेषण शक्ति पर परख कर ही अच्छे-बुरे का चयन किया और अंध-भक्ति से हमेशा तटस्थ रहे|
जिस तरह हर जाति-समाज में अच्छे-बुरे दोनों पक्ष होते आये हैं, ऐसे ही जाटों ने जब स्वामी दयानद जी
(जो कि जाति से एक ब्राह्मण थे) का दिया आर्य- समाज सिद्धांत पाखंडो और आडम्बरों से रहित लगा तो सबसे ज्यादा गले लगाया (अगर कोई यह मानता हो कि जाट ब्राह्मिणों से या ब्राह्मण जाटों से घृणा करते हैं इसलिए उनको एंटी-ब्राह्मण कहा जाता है तो वह अपना यह पक्ष दुरुस्त कर ले और देखे कि एक ब्राह्मण के ही दिए आर्य-समाज के सिद्दांत को जाटों ने कैसे सर-धार्य किया|) और हरियाणा (जिसके वास्तविक स्वरूप में आज
का हरियाणा + दिल्ली + पश्चिमी उत्तर प्रदेश + दक्षिणी उत्तराखंड + उत्तरी राजस्थान आते हैं, इसको आप खापलैंड भी बोल सकते हैं) को ऐसी धरती बनाया कि जहां देश के कौने-कौने से साधू-तपस्वी आर्यसमाज की दीक्षा लेने आते रहे (जिनमें ताजा उदाहरण टीम अन्ना में रहे स्वामी अग्निवेश हैं जो मूलत: छतीसगढ़ के हैं लेकिन इन्होनें हरियाणा को अपनी कर्मभूमि बनाया) और जिस-जिस बात में खोट लगा उसका दुर्विरोध किया|
और क्योंकि यह आलोचना से ले विश्लेषण की दुर्लभ क्षमता और फिर इस क्षमता के बल पे सामने वाले
को थोबने की क्षमता ब्राह्मिणों के बाद जाटों के पास थी और जिस तरह विज्ञान के सम-पोल की थ्योरी (Theory of replusion of same poles) कहती है कि समान भाव वाले आवेशित पोल एक-दूसरे को अस्वीकार करते हैं तो ऐसे ही जाटों और ब्राह्मण के साथ हुआ और वो एक दूसरे को मनौवैज्ञानिक क्षमता पर अस्वीकार करते
रहे| जिसका फायदा इन दोनों जातियों में दूरियां बढ़ाने वालों ने उठाया और प्रचार किया जाने लगा कि जाट तो एंटी-ब्राह्मण हैं| जो कि विज्ञान के आधार पर देखो तो सत्य भी है परन्तु तार्किक क्षमता पर सबसे बड़ी समानता है| लेकिन लोग बजाये यह देखने के कि यह प्रचार किस आधार पर है इसमें दूर हटने की हीं भावना ज्यादा ढूँढ़ते हैं| हालंकि स्वस्थ कम्पीटिशन और अस्वीकार्यता तो समाज में अनिवार्य भी है लेकिन वह दुर्भावना में तब तब्दील होनी शुरू हो जाती है जब उसको सिद्ध करने को गलत रास्ते अपनाये जाते हैं| जैसे कि 1931 में लाहौर कोर्ट की एक न्यायप्रति में ब्राह्मिणों द्वारा जाटों को शुद्र करार करवा देना, और यह करार
करवाया गया ब्राह्मिणों में विदयमान स्वामी दयानंद के विरोधियों द्वारा| क्योंकि वो सोचने लगे थे कि जब से स्वामी दयानंद हुए हैं, जाटों ने आर्यसमाज को शिखर पर पहुंचा दिया है| सो इससे वो डर गए कि एक तो जाट पहले से ही उनके आलोचक रहे हैं और ऐसे में अगर इनका असर मर जायेंगे| इसलिए दूसरी जातियों को जाटों और स्वामी दयानंद के प्रभाव से हटाने के लिए और जाटों को आर्यसमाज की राह पर चलने से रोकने हेतु
हतोत्साहित करने के लिए उनको लाहौर कोर्ट से शुद्र ठहरवा दिया| जबकि धरातलीय सच्चाई यह
थी कि एक ब्राह्मण स्वामी दयानंद की प्रसिद्धि दूसरे ब्राह्मण वर्ग को पसंद नहीं आई|ब्राह्मण पूजक, मिझे लग रहा है की तू पैदा भी इन्ही ब्राह्मणों की कृपा से हुआ है, जाट बीज न है तू, ऐंवे ही सिनसिनवार गोत्र का नाम खराब कर रहा है, क्या महाराजा सूरजमल ऐसे ही विचार रखते थे????? की जाट गए भाद में लेकिन ब्राह्मणों पर आंच न आणि चाहिए, मुल्ला कहने से कुछ न होने का, तू सिर्फ यही prove कर रहा है की तू बह्मानो का बीज है nothing else, क्यिंकि जाट तो जाट ही रहेगा, चाहे वो हिन्दू हो, मुस्लमान हो, सिख हो या इसी हो
साभार :
रजत सिंह जटराणा
क्योंकि इसके अंदर जांचने, परखने, आलोचनात्मकता और विश्लेषण करने की निर्भीक क्षमता होती है| आलोचना करने की इसकी क्षमता पे तो कहा भी गया है कि " छिका हुआ जाट राजा के हाथी को भी गधा बता दे|" और, वैसे तो यह बड़ा ही विवादित रहा है कि जाट हिन्दू हैं या वैदिक आर्य (क्योंकि सर छोटूराम जी अपना धर्म 'हिन्दू' नहीं अपितु 'वैदिक आर्य' बताते थे और कहते थे कि हिन्दू 'वैदिक आर्यों' का सबसेट (subset) है क्योंकि हिन्दू बाद में हुए और आर्य अनंत काल से थे| और इसका प्रमाण है भगवद गीता, रामायण और
महाभारत की मूल-प्रतियों में हिन्दू शब्द का कहीं वर्णन ना होना| इसलिए हिन्दू शब्द वैदिक आर्यन काल के बाद सम्भवत: बोद्ध काल की कृति है|) लेकिन फिर भी वर्ण-व्यस्था में इनको क्षत्रिय सुनता आया हूँ| तो जहां इनके समकक्ष अन्य क्षत्रिय जातियां ब्राहम्णों के सुझावों, परामर्शों, निर्देशों, उपदेशों को बिना किसी तर्क-वितर्क और प्रतिरोध के स्वीकार करती आई, वहीँ जाटों ने हर बार अपनी जांचने, परखने और विश्लेषण शक्ति पर परख कर ही अच्छे-बुरे का चयन किया और अंध-भक्ति से हमेशा तटस्थ रहे|
जिस तरह हर जाति-समाज में अच्छे-बुरे दोनों पक्ष होते आये हैं, ऐसे ही जाटों ने जब स्वामी दयानद जी
(जो कि जाति से एक ब्राह्मण थे) का दिया आर्य- समाज सिद्धांत पाखंडो और आडम्बरों से रहित लगा तो सबसे ज्यादा गले लगाया (अगर कोई यह मानता हो कि जाट ब्राह्मिणों से या ब्राह्मण जाटों से घृणा करते हैं इसलिए उनको एंटी-ब्राह्मण कहा जाता है तो वह अपना यह पक्ष दुरुस्त कर ले और देखे कि एक ब्राह्मण के ही दिए आर्य-समाज के सिद्दांत को जाटों ने कैसे सर-धार्य किया|) और हरियाणा (जिसके वास्तविक स्वरूप में आज
का हरियाणा + दिल्ली + पश्चिमी उत्तर प्रदेश + दक्षिणी उत्तराखंड + उत्तरी राजस्थान आते हैं, इसको आप खापलैंड भी बोल सकते हैं) को ऐसी धरती बनाया कि जहां देश के कौने-कौने से साधू-तपस्वी आर्यसमाज की दीक्षा लेने आते रहे (जिनमें ताजा उदाहरण टीम अन्ना में रहे स्वामी अग्निवेश हैं जो मूलत: छतीसगढ़ के हैं लेकिन इन्होनें हरियाणा को अपनी कर्मभूमि बनाया) और जिस-जिस बात में खोट लगा उसका दुर्विरोध किया|
और क्योंकि यह आलोचना से ले विश्लेषण की दुर्लभ क्षमता और फिर इस क्षमता के बल पे सामने वाले
को थोबने की क्षमता ब्राह्मिणों के बाद जाटों के पास थी और जिस तरह विज्ञान के सम-पोल की थ्योरी (Theory of replusion of same poles) कहती है कि समान भाव वाले आवेशित पोल एक-दूसरे को अस्वीकार करते हैं तो ऐसे ही जाटों और ब्राह्मण के साथ हुआ और वो एक दूसरे को मनौवैज्ञानिक क्षमता पर अस्वीकार करते
रहे| जिसका फायदा इन दोनों जातियों में दूरियां बढ़ाने वालों ने उठाया और प्रचार किया जाने लगा कि जाट तो एंटी-ब्राह्मण हैं| जो कि विज्ञान के आधार पर देखो तो सत्य भी है परन्तु तार्किक क्षमता पर सबसे बड़ी समानता है| लेकिन लोग बजाये यह देखने के कि यह प्रचार किस आधार पर है इसमें दूर हटने की हीं भावना ज्यादा ढूँढ़ते हैं| हालंकि स्वस्थ कम्पीटिशन और अस्वीकार्यता तो समाज में अनिवार्य भी है लेकिन वह दुर्भावना में तब तब्दील होनी शुरू हो जाती है जब उसको सिद्ध करने को गलत रास्ते अपनाये जाते हैं| जैसे कि 1931 में लाहौर कोर्ट की एक न्यायप्रति में ब्राह्मिणों द्वारा जाटों को शुद्र करार करवा देना, और यह करार
करवाया गया ब्राह्मिणों में विदयमान स्वामी दयानंद के विरोधियों द्वारा| क्योंकि वो सोचने लगे थे कि जब से स्वामी दयानंद हुए हैं, जाटों ने आर्यसमाज को शिखर पर पहुंचा दिया है| सो इससे वो डर गए कि एक तो जाट पहले से ही उनके आलोचक रहे हैं और ऐसे में अगर इनका असर मर जायेंगे| इसलिए दूसरी जातियों को जाटों और स्वामी दयानंद के प्रभाव से हटाने के लिए और जाटों को आर्यसमाज की राह पर चलने से रोकने हेतु
हतोत्साहित करने के लिए उनको लाहौर कोर्ट से शुद्र ठहरवा दिया| जबकि धरातलीय सच्चाई यह
थी कि एक ब्राह्मण स्वामी दयानंद की प्रसिद्धि दूसरे ब्राह्मण वर्ग को पसंद नहीं आई|ब्राह्मण पूजक, मिझे लग रहा है की तू पैदा भी इन्ही ब्राह्मणों की कृपा से हुआ है, जाट बीज न है तू, ऐंवे ही सिनसिनवार गोत्र का नाम खराब कर रहा है, क्या महाराजा सूरजमल ऐसे ही विचार रखते थे????? की जाट गए भाद में लेकिन ब्राह्मणों पर आंच न आणि चाहिए, मुल्ला कहने से कुछ न होने का, तू सिर्फ यही prove कर रहा है की तू बह्मानो का बीज है nothing else, क्यिंकि जाट तो जाट ही रहेगा, चाहे वो हिन्दू हो, मुस्लमान हो, सिख हो या इसी हो
साभार :
रजत सिंह जटराणा
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