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Saturday, September 28, 2013

जाटों और अंग्रेजों के आंसु

जब जाटों ने अंग्रेजों का सूर्य उदय होने से रोक दिया एक कहावत है कि ‘अंग्रेजों के राज में उनका सूर्य कभी अस्त नहीं होता था’ यह सच है कि इनके अधीन जमीन पर हमेशा कहीं ना कहीं दिन रहता था। भारत के इतिहास में अंग्रेजों के विरुद्ध केवल प्लासी की लड़ाई का वर्णन किया जाता है जबकि यह लड़ाई पूरी कभी लड़ी ही नहीं गई, बीच में ही लेन-देन शुरू हो गया था। सन् 1857 के गदर का इतिहास तो पूरा ही मंगल पाण्डे,नाना साहिब, टीपू सुलतान, तात्या टोपे तथा रानी लक्ष्मीबाई के इर्द-गिर्द घुमाकर छोड़ दिया गया है, लेकिन जब जाटों का नाम आया और उनकी बहादुरी की बात आई तो इन साम्यवादी और ब्राह्मणवादी लेखकों की कलम की स्याही ही सूख गई। इससे पहले सन् 1805 में भरतपुर के महाराजा रणजीतसिंह (पुत्र महाराजा सूरजमल) की चार महीने तक अंग्रेजों के साथ जो लड़ाई चली वह अपने आप में जाटों की बहादुरी की मिशाल और भारतीयइतिहास का गौरवपूर्ण अध्याय है। भारत में अंग्रेजों का भरतपुर के जाट राजा के साथ समानता के आधार पर सन्धि करना एक ऐतिहासिक गौरवशाली दस्तावेज है जिसे 'Permanent Friendship Treaty on Equality Basis' नाम दिया गया। इस प्रकार की सन्धि अंग्रेजों ने भारतवर्ष में किसी भी राजा से नहीं की। (वास्तव में दूसरों के साथ सन्धि करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी क्योंकि हमारे बहादुर कहे जाने वाले राजाओं ने जाटों को छोड़ अंग्रेजों की बगैर किसी हथियार उठाये गुलामी स्वीकार कर ली थी।) इतिहास गवाह है कि भारत के अन्य किसी भी राजा ने अंग्रेजों के खिलाफ प्लासी युद्ध व मराठों के संघर्ष को छोड़कर अपनी तलवार म्यान से नहीं निकाली और बहादुरी की डींग हाकनेवालों ने नीची गर्दन करके अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार की। पंजाब में जब तक ‘पंजाबकेसरी’ महाराजा रणजीतसिंह जीवित थे (सन् 1839), अंग्रेजों ने कभी पंजाब की तरफ आँख उठाकर देखने की हिम्मत नहीं की और सन् 1845 में उन्होंने पंजाब में प्रवेश किया, वह भी लड़ाई लड़कर। अंग्रेज इन लड़ाइयों के अन्त में विजयी रहे लेकिन कुछ हिन्दुओं की महान् गद्दारी की वजह से (आगे पढें)। भरतपुर की लड़ाई पर एक दोहा प्रचलित था - हुई मसल मशहूर विश्व में, आठ फिरंगी नौ गोरे। लड़ें किले की दीवारों पर, खड़े जाट के दो छोरे। इस लड़ाई का विवरण अनेक पुस्तकों में लिखा मिलता है, जैसे कि ‘भारत में अंग्रेजी राज’ ‘जाटों के जोहर’ और ‘भारतवर्ष में अंग्रेजी राज के 200 वर्ष।’ लेकिन विद्वान् सवाराम सरदेसाई की पुस्तक “अजय भरतपुर” प्रमुख है। विद्वान् आचार्य गोपालप्रसाद ने तो यह पूरा इतिहास पद्यरूप में गाया है जिसका प्रारंभ इस प्रकार है- अड़ कुटिल कुलिस-सा प्रबल प्रखर अंग्रेजों की छाती में गढ़, सर-गढ़ से बढ़-चढ़ सुदृढ़, यहअजय भरतपुर लोहगढ़। यह दुर्ग भरतपुर अजय खड़ा भारत माँ का अभिमान लिए, बलिवेदी पर बलिदान लिए, शूरों की सच्ची शान लिए ॥ जब राजस्थान के राजपूत राजाओं ने अंग्रेजों के विरोध में तलवार नहीं उठाई तो जोधपुर के राजकवि बांकीदास से नहीं रहा गया और उन्होंने ऐसे गाया - पूरा जोधड़, उदैपुर, जैपुर, पहूँ थारा खूटा परियाणा। कायरता से गई आवसी नहीं बाकें आसल किया बखाणा ॥ बजियाँ भलो भरतपुर वालो, गाजै गरज धरज नभ भौम। पैलां सिर साहब रो पडि़यो, भड उभै नह दीन्हीं भौम ॥ अर्थ है कि “है जोधपुर, उदयपुर और जयपुर के मालिको ! तुम्हारा तो वंश ही खत्म हो गया। कायरता से गई भूमि कभी वापिस नहीं आएगी,बांकीदास ने यह सच्चाई वर्णन की है। भरतपुर वाला जाट तो खूब लड़ा। तोपें गरजीं, जिनकी धूम आकाश और पृथ्वी पर छाई। अंग्रेज का सिर काट डाला, लेकिन खड़े-खड़े अपनी भूमि नहीं दी।” अंग्रेजों ने स्वयं अपने लेखों में भरतपुर लड़ाई पर जाटों की बहादुरी पर अनेक टिप्पणियाँ लिखीं। जनरल लेक ने वेलेजली (इंग्लैंड) को 7 मार्च 1805 को पत्र लिखा “मैं चाहता हूँ कि भरतपुर का युद्ध बंद कर दिया जाये, इस युद्ध को मामूली समझने में हमने भारी भूल की है।” इस कारण भरतपुर का लोहगढ़ का किला अजयगढ़ कहलाया। उस समयकहावत चली थी लेडी अंग्रेजन रोवें कलकत्ते में क्योंकि अंग्रेज भरतपुर की लड़ाई में मर रहे थे, लेकिन उनके परिवार राजधानी कलकत्ता में रो रहे थे। इतिहास गवाह है कि जाटों ने चार महीने तक अंग्रेजों के आंसुओं का पानी कलकत्ता की हुगली नदी के पानी में मिला दिया था। स्वयं राजस्थान इतिहास के रचयिता कर्नल टाड ने लिखा - अंग्रेज लड़ाई में जाटों को कभी नहीं जीत पाए। इस प्रकार अंग्रेजों का सूर्य जो भारत में बंगाल से उदय हो चुका था भरतपुर, आगरा व मथुरा में उदय होने के लिए चार महीने इंतजार करता रहा, फिर भी इसकी किरणें पंजाब में 41 साल बाद पहुंच पाईं। पाठकों को याद दिला दें कि भारतवर्ष में केवल जाटों कीदो रियासतों भरतपुर व धौलपुर ने कभी भी अंग्रेजोंको खिराज (टैक्स) नहीं दिया। यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि भरतपुर में लौहगढ़ का किला भारत में एकमात्र ऐसा गढ़ है जिसे कभी कोई दूसरा कब्जा नहीं कर पाया। इसलिए इसका नाम अजयगढ़ पड़ा। "जय भगवान, जाट बलवान" Virender Saharan

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