महाराज
सूरजमल की मृत्यु के बाद बहादुरसिंह को अभिमान हो गया था। वह जाट-राज्य
कायम करने और उस पर शासक होने का उतना ही अधिकार समझता था, जितना कि
जवाहरसिंह। उसके तत्कालीन व्यवहारों द्वारा प्रकट होता था कि वह बेर के
मैदानी क्षेत्र पर स्वतन्त्र शासक बनकर रहना चाहता था। वह जवाहरसिंह के
रोकने पर भी बाज न आया। उसने किलेबन्दी करनी शुरू की। जवाहरसिंह अगस्त सन्
1765 में वैर पर चढ़ आये और चारों ओर से घेरा डाल दिया। बहादुरसिंह ने पहले
से ही बड़ी तैयारी कर ली थी, इसलिए उसने डटकर सामना किया। तीन महीने तक
इसी तरह आक्रमण होते रहे और बहादुरसिंह बेकार करता रहा। आखिरकार वह चालाकी
से गिरफ्तार कर लिया गया। जवाहरसिंह द्वारा कैद होकर बहादुरसिंह भरतपुर
लाया गया और नवम्बर सन् 1765 में ही छोड दिया गया।
इधर महाराज
जवाहरसिंह बहादुरसिंह के दमन में लगे थे और उधर नाहरसिंह जवाहरसिंह का छोटा
भाई धौलपुर रहते हुए भरतपुर पर अधिकार कर लेने की चेष्टा में था। वह यह
अच्छी तरह जानता था कि जवाहरसिंह बहादुरसिंह से निपट कर तेरी और फिरेगा।
संयोग से मल्हारराव होल्कर भी समीप के ही एक जाट सरदार की ताक में फिर रहा
था। नाहरसिंह ने भरतपुर पर अधिकार करा देने के लिए उससे लिखा-पढ़ी शुरू की।
मल्हारराव देहली की चढ़ाई के बाद से जवाहरसिंह से ऐंठ ही गया था और जब
उसने (जवाहरसिंह ने) होल्कर पर विश्वासघात का अपराध लगा कर ठहरे हुए शेष 22
लाख रुपये देने से इनकार कर दिया तो वह और भी कुढ़ गया था। उसने इस अवसर
को अपनी कसम निकाल लेने के लिए काफी समझा ओर अत्यन्त प्रसन्नता से नाहरसिंह
की सहायता करना स्वीकार कर लिया। उसने उसे (नाहरसिंह को) धर्मपुत्र बनाया
और पुत्र की रक्षा के नाते से अपनी सेना चम्बल भेज दी, जो नाहरसिंह की सेना
से मिलकर धौलपुर-दुर्ग की रक्षा करने लगी। इस अरसे में जवाहरसिंह भी
चुपचाप न बैठा था। उसके पास कुल समाचार पहुंचते रहते थे और वह इस
बुद्धिमानी से आक्रमण करने की तैयारी में था कि नाहरसिंह के सहायक मराठों
का भी रास्ते में ही मान-मर्दन कर सके। दिया और दिसम्बर सन् 1765 में चम्बल
के किनारे पहुंच गया। यहां मराठा सेना का एक हिस्सा, जो कि जाट-प्रदेश में
घुस आया था, गिरफ्तार कर लिया गया। महाराज जवाहरसिंह ने जब धौलपुर पर
आक्रमण किया तो नाहरसिंह और मराठों की सेना उससे लोहा न ले सकी और
विजय-श्री ने महाराज जवाहरसिंह का साथ दिया। धौलपुर पर अधिकार करके वहां के
बहुत से मराठों को उन्होंने कैद कर लिया। नाहरसिंह वहां से भाग निकला और धौलपुर में एक
छोटे से राजपूत जागीरदार के किले में जाकर विश्राम किया। वहीं उसने विष
खाकर आत्म-हत्या कर ली और उसका परिवार राजा जयपुर के यहां जाकर रहने लगा।
जवाहरसिंह महाराज सूरजमल की तरह नम्र विचार का न था। वह अवसर पाकर शत्रु
को नष्ट कर देने की ताक में रहता था। उसकी इसी नीति के कारण, उसका अपनी
सेना का गर्वनर तक, उसके पक्ष में न था। महाराज जवाहरसिंह ने धौलपुर पर
अधिकार हो जाने पर देखा कि मराठों की शक्ति इतनी ही है तो वह उन्हें
राजपूताने से निकाल भगाने की इच्छा करने लगा। परन्तु ग्रीष्म ऋतु आ जाने से
उसके सिख सैनिकों ने अस्वीकार कर दिया। अतः उस समय उसने अपना इरादा स्थगित
कर दिया।
परन्तु महाराज जवाहरसिंह के इरादे केवल इरादे ही न थे। उस
समय की बढ़ती हुई शक्ति में सिख सैनिक उसकी अध्यक्षता में रहते थे। इसलिए
समस्त उत्तरी भारत में सूरजमल के जाट-राज्य की डाली हुई नींव को वह पूरा और
दृढ़ कर लेने के विचार में था। अब्दाली के मुकाबले में डटे रहने के लिए
सिख काफी थे और इधर वह मराठों के लिए तरकीबें सोच रहा था। मालवा के जाटों
को जाट-संघ में मिलाकर वह मराठों का इलाज करने की तैयारी कर रहा था।
गोहद का राणा छत्रसाल अत्यन्त वीरता और बहादुरी से मराठों से युद्ध कर रहा
था। पंजाब और भरतपुर के जाटों की भांति वहां के जाटों ने भी अपने स्वतंत्र
विचार और महान् साहस का परिचय दिया। मराठों की विशाल सेना के सामने भी
वर्षों तक अपने स्वतन्त्र विचार और ध्येय को कायम रखा। महाराज जवाहरसिंह ने
वीरवर राणा छत्रशाल की सहायता कर मराठों की शक्ति क्षीण करने की ठान ली।
जब माधोराव पेशवा को इस जबरदस्त जाट-संघ का पता चला तो उसे बड़ा भय हुआ।
क्योंकि वह जानता था कि इसकी जड़ बड़ी मजबूत है और वह है जवाहरसिंह, जिसकी
मार से मराठे धौलपुर से कुछ दिन पहले ही भाग आए थे और जिनके समाचारों को वह
जान चुका था। उसने 1766 बसन्त ऋतु में रघुनाथराव को होल्कर के साथ 60 हजार
घुड़सवार और एक सौ बड़ी तोपों के साथ मराठों का दबदबा जमाने के लिए भेजा
था। रघुनाथराव ने पहले ही गोहद पर घेरा डाल दिया और बड़ी कड़ी-कड़ी मांगे
पेश कीं। जवाहरसिंह इस समय बहुत बीमार था, परन्तु शीघ्र ही स्वास्थ्य लाभ
लेने पर मराठों से युद्ध करने पहुंच गया। पर जिस दुर्भाग्य से हमारे देश भर
को कितनी ही बार भंयकर विपत्तियां सहनी पड़ी और देश इस चिन्त्य-दुर्दशा तक
पहुंच चुका है, वही दुर्भाग्य वहां भी अड़ गया। महाराज के दल में दो दुष्ट
जयचन्द खड़े हो गए। उन्होंने थोड़े से लालच पर महाराज जवाहरसिंह को उसी के कैम्प में कैद करा देने का वायदा किया। फूट
जाने वाले विश्वासघाती अनूपगिरि गोसाई के भेद की सूचना गुप्तचरों द्वारा
महाराज को ठीक समय पर लगी। उन्होंने अर्द्ध रात्रि के समय ही अपनी सेना को
तैयार किया और एकदम से गोसाइयों के कैम्प पर हमला कर दिया। दुष्ट
विश्वासघाती बड़ी कठिनता से भागकर प्राण बचा पाए, परन्तु उसके साथी एक बड़ी
संख्या में कैद कर लिए गए। उनका कैम्प लूट लिया। जिसमें 1400 के करीब
घोड़े, 10 हाथी, 100 तोपें व अन्य और भी कितना ही सामान महाराज के हाथ आया।
इस प्रकार उन्हें उन्हीं की करनी का फल मिल गया।
इसी समय अब्दाली
ने फिर पैर बढ़ाया और मराठों की तरह वह भी भारत में पुनः रौब-दौब बैठाने
पंजाब में उपस्थित हुआ। अब्दाली से सामना करने के लिए जवाहरसिंह और
रघुनाथराव में एक संधि हुई-एक तरह से उन्होंने झगड़ों का फैसला किया। आपस
में तय पाया कि-1. जो कैदी भरतपुर में हैं छोड़ दिए जाएं, 2. यदि कि मराठे
दूसरी सन्धि की शर्तों को पूरा कर दें तो जवाहरसिंह मल्हरराव के तय किए हुए
बकाया रुपये दे देगा, 3. रघुनाथराव, महाराज जवाहरसिंह के राज्य के आस-पास
का राजपूताने का हिस्सा राजा को 5,00000 रुपया सलाना लगान पर दे दें।
इस प्रकार ये शर्तें दोनों ओर से ही साफ दिल से नहीं हुई थीं और न इन्हें
निभाने की इच्छा ही थी, अगर किसी आरे वालों को इसे तोड़ देने से लाभ दिखलाई
पड़ता। सन् 1767 के मध्य तक सिखों के जोर पकड़ जाने से अब्दाली का भय न
रहा। उस समय जवाहरसिंह चुपचाप बैठा न रहा। उसने वर्षा ऋतु में ही युद्ध के
लिए कदम बढ़ाया। अटेर और भिंड जहां के राजा मराठों के अधीन थे, महाराज
जवाहरसिंह पहले इन्हीं की ओर बढ़ा। वह उस ओर बहुत बढ़ गया, जितना कि उसने
स्वयं न सोचा था। उसने अपनी शक्तिशाली सेना के साथ कालपी तक मराठे और
छोटे-छोटे अन्य जागीरदारों को अपने अधिकार में कर लिया। इस तरह जाट-राज्य
की सीमा उसने बहुत कुछ बढ़ा दी।
भारतवर्ष में एक शक्ति इस समय और
पैर जमा रही थी और वह थी अंग्रेज। परन्तु अंग्रेज भी किसी ऐसे मित्र की खोज
में थे जो उनकी मदद कर सके। चतुर अंग्रेजों ने महाराज जवाहरसिंह के पास 19
अगस्त सन् 1765 ई. को एक पत्र भेजा, जिसमें लिखा था कि महाराज अगर समरू
नामक फ्रेंच को अपने यहां से हटा दें तो अंग्रेज बाहरी आक्रमण के विरुद्ध
भरतपुर की सहायता करेंगे। परन्तु महाराज ने इस पत्र पर किंचित भी ध्यान न
दिया। यहां तक कि महाराज इसके लिए एकदम भूल गए। लेकिन अंग्रेज महाराज
जवाहरसिंह से संधि करने के लिए व्यग्र हो रहे थे। वे बार-बार इसकी चेष्टा
कर रहे थे। जवाहरसिंह ने देखा कि संधि के लिए मराठे जब स्वयं प्रार्थना कर
रहे हैं तो उनसे तो संधि के
लिए दरख्वास्त की गई है, वह शीघ्र ही
अब्दाली के विरुद्ध अंग्रेजों में जा मिला। संधि शर्तों को ईमानदारी से
पालने के कारण वह अधिक अंग्रेजों की तरफ आकर्षित हुआ। जवाहरसिंह ने भी अपनी
मित्रता को पूरी तरह निभाया। अंग्रेजों से मित्रता होने पर उसने अब्दाली
से किसी तरह का सम्बन्ध न रखा और उसके प्रार्थना करने पर भी अपने निश्चय और
पद पर अटल रहा। इसी तरह मराठों से अंग्रेजों के कारण मित्रता तोड़ दी।
महाराज जवाहरसिंह ने इस समय भी जब भी मौका मिला, मराठों के राज्य पर हाथ
मारा और उनकी उदासीनता के कारण मराठों के बहुत से अधिकृत प्रदेश पर अपना
कब्जा कर लिया।
देहली के आस-पास और मेरठ के जाटों ने जब सुना कि
जाट नरेश जवाहरसिंह देहली पर चढ़ाई करने को आया है, तो वे लाठी, बल्लम जो
भी हाथ लगा, लेकर सेना में आ मिले। इसी तरह ब्रज के जाट भी उनके साथ
सम्मिलित हुए थे। जब उन्होंने मालवे पर चढ़ाई की तो वहां के जाटों का हाल
और प्रेम भी वह देख चुके थे। अब उनकी इच्छा राजपूताने के पश्चिम ओर के
जाटों को देखने की हुई। उनका राज्य तीन ओर तो बढ़ चुका था, अब यह चौथी दिशा
बाकी थी जिस पर कि उन्होंने अब तक ध्यान न दिया था।
अलवर के राज्य के
संस्थापक राजा प्रतापसिंह ने जवाहरसिंह को उधर की तरफ बढ़ने का अधिक
प्रोत्साहन दिया। उसने समर्थन ही नहीं, बल्कि इनसे प्रार्थना की, क्योंकि
वह जयपुर-नरेश से झगड़ा करके महाराज सूरजमल के संरक्षण में आया था। इसलिए
वह चाहता था कि जिस राज्य ने इसके साथ अन्याय किया है, उसका बदला ले।
वास्तव में भरतपुर और जयपुर के विरोध का कारण भी अधिकतर यही था। लेकिन बाद
में इसी के विश्वासघात से महाराज जवाहरसिंह को भंयकर हानि उठानी पड़ी थी।
इस हानि का फल भी जवाहरसिंह के लिए बहुत बुरा हुआ। महाराज ने जिसकी भलाई
की, उसी ने धोखा दिया। ठीक ही है -
“पयः पानं भुजंगानां केवलं विषवर्द्धनम्।”
महाराज जवाहरसिंह ने शीघ्र ही अवसर देखकर अपने पंजाबी सैनिकों के साथ प्रस्थान कर
भारतेन्दु जवाहरसिंह ने पुष्कर स्नान के उद्देश्य से सेनासहित यात्रा शुरू
की। प्रतापसिंह भी महाराज के साथ था। जाट-सैनिकों के हाथ में बसन्ती झण्डे
फहरा रहे थे। जयपुर नरेश के इन जाटवीरों की यात्रा का समाचार सुन कान खड़े
हो गए। वह घबड़ा-सा गया। हालांकि जवाहरसिंह इस समय किसी ऐसे इरादे में
नहीं गए थे, पर यात्रा की शाही ढंग से। जयपुर नरेश या किसी अन्य ने उनके
साथ कोई छेड़-छाड़ नही की और वह गाजे-बाजे के साथ निश्चित स्थान पर पहुंच
गए।
स्नान-ध्यान करने के पश्चात् भी महाराज कुछ दिन वहां रहे।
राजा विजयसिंह से उनकी मित्रता हुई। इधर महाराज के जाते ही राजपूत सामंतो
में तूफान-सा मच गया। उधर के शासित जाट और इस शासक जाट राजा को वे एक
दृष्टि से देखने लगे। इस क्षुद्र विचार के उत्पन्न होते ही सामंतों का संतुलन बिगड़ गया और
वे झुण्ड जयपुर नरेश के पास पहुंचकर उन्हें उकसाने लगे। परन्तु जाट
सैनिकों से जिन्हें कि उन्होंने जाते देख लिया था, उनकी वीरता और अधिक
तादात को देखकर, आमने-सामने का युद्ध करने की इनकी हिम्मत न पड़ती थी।
जवाहरसिंह को अपनी बहादुर कौम के साथ लगाव था, उसकी यात्रा का एकमात्र
उद्देश्य पुष्कर-स्नान ही नहीं था, वरन् वहां की जाट-जनता की हालत को देखना
भी था। उनको मालूम हुआ कि तौरावाटी (जयपुर का एक प्रान्त) में अधिक संख्या
जाट निवास करते हैं तो उधर वापस लौटने का निश्चय किया। राजपूतों ने लौटते
समय उन पर आक्रमण करने की पूरी तैयारी कर ली थी। यहां तक कि जो निराश्रित
प्रतापसिंह भागकर भरतपुर राज की शरण में गया था और उन्होंने आश्रय ही नहीं,
कई वर्ष तक अपने यहां सकुशल और सुरक्षित रखा था, षड्यन्त्र में शामिल हो
गया। उसने महाराज की ताकत का सारा भेद दे दिया। राजपूत तंग रास्ते, नाले
वगैरह में महाराज जवाहरसिंह के पहुंचने की प्रतीक्षा करते रहे। वे ऐसा अवसर
देख रहे थे कि जाट वीर एक-दूसरे से अलग होकर दो-तीन भागों में दिखलाई
पड़ें तभी उन पर आक्रमण कर दिया जाए।
तारीख 14 दिसम्बर 1767 को
महाराज जवाहरसिंह एक तंग रास्ते और नाले में से निकले। स्वभावतः ही ऐसे
स्थान पर एक साथ बहुत कम सैनिक चल सकते हैं। ऐसी हालत में वैसे ही जाट एक
लम्बी कतार में जा रहे थे। सामान वगैरह दो-तीन मील आगे निकल चुका था।
आमने-सामने के डर से युद्ध न करने वाले राजपूतों ने इसी समय धावा बोल दिया।
विश्वास-घातक प्रतापसिंह पहले ही महाराज जवाहरसिंह का साथ छोड़कर चल दिया
था। घमासान युद्ध हुआ। जाट वीरों ने प्राणों का मोह छोड़ दिया और
युद्ध-भूमि में शत्रुओं पर टूट पड़े। जयपुर नरेश ने भी अपमान से क्रोध में
भरकर राजपूत सरदारों को एकत्रित किया। जयपुर के जागीरदार राजपूतों के 10
वर्ष के बालक को छोड़कर सभी इस युद्ध में शामिल हुए थे। सब सरदार
छिन्न-भिन्न रास्ते जाते हुए जाट-सैनिकों पर पिल पड़े। जाट सैनिकों ने भी
घिर कर युद्ध के इस आह्नान को स्वीकार किया और घमासान युद्ध छेड़ दिया।
आक्रमणकारियों की पैदल सेना और तोपखाना बहुत कम रफ्तार से चलते थे।
जाट-सैनिकों ने इसका फायदा उठाया और घाटी में घुसे। करीब मध्यान्ह के दोनों
सेनाएं अच्छी तरह भिड़ीं। इस समय महाराज जवाहरसिंह जी की ओर से मैडिक और
समरू की सेनाओं ने बड़ी वीरता और चतुराई से युद्ध किया। जाट-सैनिकों ने
जयपुर के राजा को परास्त किया। परन्तु जाटों की ओर से सेना संगठित और
संचालित होकर युद्ध-क्षेत्र में उपस्थित न होने के कारण इस लड़ाई मे महाराज
जवाहरसिंह को सफलता नहीं मिली। लेकिन वह स्वयं सदा की भांति असाधारण वीरता
और जोश के साथ अंधेरा होने तक युद्ध करते रहे
जयपुर सेना का प्रधान
सेनापति दलेलसिंह, अपनी तीन पीढ़ियों के साथ मारा गया। यद्यपि इस युद्ध में
महाराज को विजय न मिली और हानि भी बहुत उठानी पड़ी, परन्तु साथ ही शत्रु
का भी कम नुकसान नहीं हुआ। कहते हैं युद्ध में आए हुए करीब करीब समस्त
जागीरदार काम आये और उनके पीछे जो 8-10 साल के बालक बच रहे थे, वे वंश
चलाने के लिए शेष रहे थे। इसमें सन्देह नहीं कि महाराज जवाहरसिंह को वहां
के जाटों की परिस्थिति और मनोवृत्ति का भी पता चल गया कि बहुत दिन तक शासित
रहने के कारण उनका स्वाभिमान मर चुका है। नहीं तो क्या कारण था कि जब वह
देहली की और चढ़ाई करने गया था तो यू.पी. और मेरठ के जाट प्रत्येक घर से
लाठी कंधे पर रखकर उससे आ मिले और महाराज पर इधर आक्रमण होने पर भी उनके
कानों पर जूं भी न रेंगी।
महाराज जवाहरसिंह की यात्रा शुभ फलदायक न
हुई। अब उनका मध्याह्न सूर्य ढला। परिवर्तनशील संसार का यही नियम है कि
यहां हमेशा एक-सी धाक (समय) नहीं रहती। इस महत्वाकांक्षी जाट सरदार को भी
परिवर्तन का सामना करना पड़ा। उसके शत्रुओं ने जब सुना कि जवाहरसिह को
जयपुर वाले युद्ध से हानि हुई है तो उन्होंने देख लिया कि अब मौका है। यह
समाचार सुनते ही चम्बल पार का प्रदेश विद्रोही बन गया और जिस शीघ्रता से वह
जाट-राज्य में मिला था, उसी तरह निकल भी गया। इधर माधौसिंह का भी साहस बढ़
गया था और भारी हानि उठाने के कारण बदला लेने के लिए 60 हजार सेना के साथ
जाट-राज्य में घुस गया। फर्रुखनगर का नवाब मुसाबीखां बलोच (जो कि एक वर्ष
पूर्व ही भरतपुर से उदारतापूर्वक कैद से रिहा हुआ था) और रुहेले राजपूतों
की सहायता करने को तत्पर हो गए। ठीक ही कहा है, ‘दुर्दिन पड़े रहीम कहि,
भूलत सब पहिचान’ की भांति सिख भी महाराज की मित्रता छोड़ने पर उतारू हुए और
उसके दोनों बाहरी प्रान्तों को छोड़ना शुरू किया। माधौसिंह ने आगे बढ़ने
और आगरे के दुर्ग को मुसाबीखां की सेना से मिलकर जीतने के लिए शाही
हुक्मनामा भेजा।
इस समय प्रत्येक व्यक्ति महाराज जवाहरसिंह को
राजपूतों से सुलह करने की सलाह दे रहा था, परन्तुं स्वाभिमानी जाट-सरदार ने
गौरवपूर्ण समझौता युद्ध की बीच लड़कर तय कर लेना पसन्द किया। वह युद्ध के
लिए तत्परता से तैयारी करने लगा। उसने सिखों को लूट के लोभ के बदले 7 लाख
रुपये दिए। एम. मैडिक का भत्ता सेना बढ़ाने के लिए 5000 रुपये महावार बढ़ा
दिया। जब राजपूतों को भय हुआ। वे सोच रहे थे जवाहरसिंह स्वयं सन्धि का
प्रस्ताव करेगा, परन्तु अब उन्होंने देखा कि सिखों को उसने अपनी ओर कर लिया
है, तो वे घबरा गए। उनके सभी इरादों पर पानी तो फिरा, लेने के देने पड़
गए। जाट-राज्य से सकुशल निकल जाना उन्हें असम्भव मालूम हुआ। आगत भय की
आशंका से महाराज जवाहरसिंह से उन्होंने सन्धि कर लेना ही अपनी रक्षा क
मात्र उपाय सोचा। जाट-नरेश से सन्धि-प्रार्थना कर सन्धि कर ली गई और वह
शीघ्रता से अपने स्थान पर लौट गए। इस तरह से राजपूत पंजाब के भयानक
घुड़सवारों के आने से पहले ही अपने देश में पहुंच गए।
जब से जवाहरसिंह
राजपूताने से लौटा था, तब से वह शान्त न बैठा था। उसके शत्रुओं ने भूल की
थी कि वह साहसहीन हो गया है, यद्यपि उस समय उसके शत्रुओं के एकदम खड़े हो
जाने से उसे हानि तो बहुत उठानी पड़ी थी, पर वह अस्थिर न हुआ था। उसका
स्वभाव ही अल्लहड़पन की वीरता से ओत-प्रोत था। वह यह तो जानता ही न था कि
भय किसे कहते हैं। लड़ाई करने की इच्छा उसकी रग-रग में भरी थी। बिना लड़ाई
उसके लिए जीवन नीरस था। माधौसिंह के चले जाने पर जब उसने देखा कि यह आया
हुआ युद्ध रूपी खेल खेलने का अवसर निकल गया तो मैडिक के साथ एक किले को
जहां राजपूतों का एक दूसरा वंश राज्य करता था, अधिकार में करने की तैयारी
कर कूच कर दी। डेढ़ महीने पश्चात् वह किले पर चढ़ने में समर्थ हुआ। उसकी
सेना जब किले के गोले-बारूद से भयभीत हो गई तो भी यह निडर भाव से डटा रहा।
दूसरी बार वह किले की दराज के नीचे से गया और दुर्ग-रक्षक डरकर अधीन हो
गये।
महाराज जवाहरसिंह इस तरह दृढ़चित्त और अदम्य उत्साह से फिर
सम्भल बैठा था, जिसे जानकर शत्रुओं को भय होने लगा था। अत्यन्त शीघ्रता से
महाराज ने बिगड़ी हई परिस्थिति को फिर वैसा ही बना लिया। उसके हथियार पहले
की भांति चमकने लगे और राज्य धन-धान्य से समृद्ध होने लगा जिससे प्रजा का
प्रेम भी प्राप्त हो गया। उसने अपनी सेना का यूरोपियन ढंग से संगठन किया,
तोपखाने बढ़ाये जिससे बाहर वाले उसकी प्रतिष्ठा करने लगे। उसके शत्रुओं को
बड़ा भय हुआ कि कहीं उसके क्रोध का ज्वालामुखी फिर से न उबल पड़े। परन्तु
दुर्भाग्य से होना कुछ और ही था जिससे उसके शत्रुओं के घर में घी के चिराग
जल गये।
जून सन् 1768 में जवाहरसिंह किसी घातक धोखे से मार डाले गये।
‘ब्रजेन्द्र-वंश भास्कर’ में उस घातक का नाम सुजात मेव लिखा है। ‘इमाद’ का
लेखक लिखता है कि महाराज जबरसिंह ने केवल अजां देने पर एक मनुष्य की जिह्वा
निकलवा ली थी। आगरे की मस्जिद को बाजार कर दिया था और उसमें अनाज की
दुकानें खुलवा दी थीं। कोई भी कसाई मांस नहीं बेच सकता था। इससे सम्भावना
होती है कि किसी तास्सुबी मुसलमान ने उन पर हमला करके मार डाला होगा।
महाराज जवाहरसिंह की मृत्यु के लिए इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जाटों
का सितारा, हिन्दु-धर्म का रक्षक, जिसकी अभी भारी आवश्कता थी, असमय में ही
विलुप्त हो गया। उनके निधन से जाट-साम्राज्य की गाड़ी तो रुक गई ।
Courtsey :: Sodhan Singh Tarar
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