महाराज
केहरीसिंह के बाद भरतपुर और जाट-जाति का अधीश्वर महाराज रणजीतसिंह को
बनाया गया। अब वे राव से महाराज हो गए। डीग इस समय तक भी नजफखां के अधिकार
में था।31 किन्तु उसके पीछे लोगों ने विद्रोह खड़ा कर दिया। विद्रोह को
शान्त करने के लिए जब नजफखां डीग की ओर आया तो महाराज रणजीतसिंह और महारानी
किशोरी देवी ने मार्ग में उससे मुलाकात की और उसकी आवभगत भी की। नजफखां
जानता था कि जाट डीग को उसके कब्जे में रहने नहीं देंगे, इसलिए उसने अपना
अहसान करने की गर्ज से नौ लाख की आमदनी के अन्य परगने महाराज रणजीतसिंह को
दे दिए और आप इस तरफ के झगड़ों से निश्चिन्त हो गया।
सन् 1782 ई. में नजफखां मर गया। महादाजी ने जो कि अपना राज्य बढ़ाने की चेष्टा में लगा हुआ था, मिर्जा नजफखां के दिए हुए इलाके को
1. डीग के सम्बन्ध में 'इन्तखाब्बुत्त्वारीख' में लिखा है कि डीग और देहली
इस समय बराबर की शोभा और व्यापार के केंद्र बने हुए थे और डीग भारतवर्ष भर
के दुर्गों से रक्षित स्थानों में प्रथम श्रेणी का था
अपने कब्जे में
करने के लिए लड़ाई छेड़ दी। महाराज रणजीतसिंह अभी अपनी शक्ति का संगठन भी
भली प्रकार नहीं कर पाये थे, इसलिए वे सेंधिया पर विजय प्राप्त न कर सके।
उनके हाथ से परगने निकल गए। सन् 1783 ई. में मुगलों के कर्मचारियों की अनबन
से लाभ उठाकर महाराज रणजीतसिंह ने डीग पर अपना अधिकार जमा लिया। उन्हीं
दिनों मिर्जा शफी की रणजीतसिंह के राज्य में अऊ नामक स्थान पर मृत्यु हो
गई। महादाजी सेंधिया जब ग्वालियर से आगरा आया तो उसने सन्देह किया कि
शफीखां को महाराज रणजीतसिंह ने मरवा डाला है। किन्तु जब वह देहली की ओर
जाने लगा तो राजमाता किशोरी और महाराज रणजीतसिंह ने उससे मार्ग में भेंट
करके सब बातें समझाई। वह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने महाराज रणजीसिंह से
मित्रता कर ली और दस लाख वार्षिक आमदनी के ग्यारह परगने उसने महाराज को दे
दिए।
सन् 1786 ई. में महादाजी सेंधिया का जयपुर और जोधपुर के सम्मिलित
राजाओं से ‘तोंगा’ नामक स्थान पर युद्ध हुआ। सेंधिया की इस बार हार हुई।
महाराज रणजीतसिंह ने मित्र के नाते सेंधिया की सेवा-सुश्रूषा की और उसे
ग्वालियर पहुंचा दिया। सेंधिया के ग्वालियर चले जाने पर रुहेलों ने भरतपुर
पर धावा किया। महाराज रणजीतसिंह ने मराठों की फौज के द्वारा उनको मार
भगाया।
उन दिनों मराठों की ओर से अलीगढ़ में पैरन नाम का फ्रांसीसी
अफसर और हाकिम था। महाराज रणजीतसिंह ने कई बार उसे सहायता दी। इस सहायता के
बदले में कामी, खोरी, पहाड़ी के तीन परगने उससे प्राप्त किये। महाराज
सूरजमल और जवाहरसिंह के समय जिन सारे प्रान्तों पर अधिकार था आज वे मराठा,
रुहेले और पठानों के हाथ में चले गए थे। थोड़े से परगने वापस करके वे बड़ा
अहसान करते थे। अलवर का नरुका कछवाहा जैसा आदमी भी इस समय से लाभ उठा चुका
था। सबसे अधिक कृतघ्न मराठे थे जिनकी सहायता महाराज सूरजमल ने भारी
विपत्तियों में की थी, उन्होंने उनके पुत्र और पौत्र के राज्य को चारों ओर
से दबा लिया था। धौलपुर के महाराज लोकेन्द्रसिंह जी ने तो आखिर इनसे तंग
आकर अंग्रेजों से मित्रता कर ली। सन् 1803 ई. में जब लार्ड लेक ने आगरा जीत
लिया तो पड़ौसी के नाते से महाराज रणजीतसिंह ने भी अंग्रेजों से मित्रता
कर ली। उस समय ऐसी मित्रताएं खेल हो रही थीं । ऐसा अविश्वास फैलाया था
मराठों ने।
इस समय अंग्रेजों का सूर्य उत्तरोत्तर चढ़ता जाता था। सारे
देशी राजा उनके मित्र और मांडलिक बन चुके थे। केवल जसवंतराय होल्कर ही ऐसा
आदमी था जो अंग्रजों के अधीन नहीं हुआ था और उनकी जड़ उखाड़ फेंकना चाहता
था। उसकी अंगेजों से कई स्थानों पर मुठभेड़ भी होती रही
सैनिक और 130
तोपें लेकर उसने दिल्ली पर चढ़ाई कर दी। किन्तु दिल्ली के रेजीडेण्ट ने
बड़ी बहादुरी और योग्यता से होल्कर का सामना किया। होल्कर दिल्ली से लौट कर
डीग पहुंचा। महाराज रणजीतसिंह की अंग्रेजों से मित्रता हो चुकी थी। किन्तु
शरणागत को आश्रय न देना उनके धर्म के विरुद्ध था। ऐसा भी कहा जाता है कि
यह अफवाह उड़ रही थी कि अंग्रेजों का गोवध की और झुकाव है, इसी से महाराज
ने सहधर्मी होल्कर की सहायता करना उचित समझा। होल्कर ने डीग में शरण ही
नहीं ली, किन्तु वहां बैठकर उसने अंग्रेजों से युद्ध भी किया। विजय-लक्ष्मी
होल्कर के पक्ष में न थी। वहां भी उसे हारना पड़ा और भागकर भरतपुर आया।
महाराज ने उसे किले में ले लिया। लार्ड लेक को जो कि होल्कर के पीछे पड़ा
हुआ था, महाराज रणजीतसिंह का यह कृत्य बहुत अखरा। उसने सन् 1805 ई. की
दूसरी जनवरी को भरतपुर पर चढ़ाई करने के लिए डीग कूच कर दिया। भरतपुर के
पश्चिम की ओर अंग्रजी-सेना ने डेरे डाल दिए। सेनाध्यक्ष मेटलेंड दुर्ग की
ओर गए। चौथी जनवरी सन् 1805 ई. को खाइयां खोदी गई। छठी जनवरी को किले पर
गोलाबारी करने के लिए टीले बनाए गए। इस प्रकार तैयारी करके सातवी जनवरी को
लार्ड लेक ने किले पर हमला कर दिया। बिना अवकाश लिए भरतपुर किले पर अंग्रेज
दो दिन तक गोलाबारी करते रहे। जाट वीर भी चुप न थे। वे बड़े धैर्य के साथ
अंग्रजों का मुकाबला करते रहे। वे भी गोलों का जवाब गोलों से दे रहे थे।
नवमीं जनवरी को अंग्रेजों को प्रतीत हुआ कि दीवार में सूराख हो गया है।
अंग्रेजी फौजों को उस सूराख के रास्ते किले में घुसने की आज्ञा दी। संध्या
के सात बज चुके थे। बादल हो रहे थे और कभी-कभी बिजली भी चमक रही थी।
अंग्रेजी सेना ने तीन भागों में विभक्त होकर, तीन ओर से, किले पर आक्रमण
किया। पहले भाग का सेनापति लेफ्टीनेण्ट रिपन था। उसके साथ 240 गोरे और देशी
सिपाही थे। अपनी सेना की तोपों के बायीं ओर से उसने किले पर आक्रमण किया।
दूसरे भाग के सेनापति मिस्टर हाक्स ने दो गोरी और दो काली पल्टनें लेकर
दक्षिण की ओर से धावा किया। लेफ्टीनेण्ट मेटलेण्ड बीच के भाग से 500 गोरे
और एक पल्टन देशी सिपाहियों के साथ टूटे हुए हिस्से की ओर बढ़े।
जाट-योद्धाओं को चतुर अंग्रेजों की इस चाल का पता लग गया। उन्होंने
अन्धाधुन्ध गोले बरसाने आरम्भ कर दिए। रात्रि के बारह बजे तक गोले बरसते
रहे। गोलों की वर्षा रात्रि के अंधकार, जाटों की किलकिल ने मेटलेण्ड की
अक्ल को चकरा दिया। वह मार्ग भूल गया और दलदल में जा फंसा। अंग्रेज साहसी
होते हैं। आन के लिए प्राणों का लोभ उन्हें भयभीत नहीं करता। एक अंग्रज
युवक विल्सन अपने 20 साथियों के साथ टूटी हुई दीवार में से निकलकर ऊपर चढ़
गया। किन्तु जाटों ने उन सब को दीवार के ऊपर से ढकेल
दिया । अंग्रेजी सेना हानि उठाकर वापस आई। इस आक्रमण में तीन अंग्रेज, दो सौ देशी सैनिक मारे गए।
लार्ड लेक इस हानि से हताश हुआ। उसने दूसरे आक्रमण की आयोजना की। छः दिन
तक तैयारी की गई । तारीख 16 जनवरी को भरतपुर किले पर दूसरा आक्रमण किया
गया। इस बार भारी-भारी तोपों को काम में लाया गया। जाट लोगों ने इन दिनों
में टूटे हुए स्थानों की मरम्मत कर ली थी। दोनों ही दल समझते थे कि अबकी
बार में फैसला हो जाएगा। सोलहवीं जनवरी को बड़े जोर से अंग्रेजी सेना ने
किले पर धावा किया। गोलों के धमाकों से दीवार का एक हिस्सा टूट गया। किन्तु
जाटों ने गोलों की बौछार में लकड़ी और पत्थर डालकर सूराख को पाट दिया और
दीवार की मरम्मत भी कर दी। चार दिन तक अंग्रेजी सेना दीवार को तोड़ती रही
और जाट वीर उसकी मरम्मत करते रहे। मरने का भय किधर भी नहीं था। जाट गोरों
से लड़ने में बड़े प्रसन्न होते थे। अपनी स्त्रियों को उनकी सूरतें दिखाकर
ताली पीटकर हंसते थे। लगातार गोलों की मार से दीवार में एक बड़ा छिद्र हो
गया। दीवार के सहारे जो खाई थी उसमें जाटों ने पानी भरने के नल खोल दिए।
मोती-झील से इन नालियों का सम्बन्ध था। पानी लबालब भर दिया। इधर महाराज
रणजीतसिंह ने अमीरखां को बुला लिया। अमीरखां के आने की खबर सुनकर जाट वीरों
में और भी साहस भर गया। वे अंग्रेजों के आने की बाट देखने लगे। अंग्रेजों
ने भी इस समय एक चाल चली। तीन देशी सैनिक भरतपुर के किले की और दौड़ाए और
उनके पीछे गोरे सैनिक लगा दिए। वे देशी सैनिक चिल्लाते थे कि हमें
फिरंगियों से बचाओ। जाट गोता खा गए, उन्होंने उन देशी सैनिकों को जो कि
चांदी के टुकड़ों के गुलाम बनकर यह प्रपंच रच रहे थे, किले में घुसा लिया।
वे थोड़ी ही देर में दीवार और भीतरी बातों को देखकर उल्टे भाग गए और सारा
भेद दीवार और सेना का अंग्रेज सेनापतियों को बता दिया।
21वीं जनवरी को
बड़ी प्रसन्नता और आशाओं के साथ अंग्रेजों ने किले पर आक्रमण करने की
तैयारी की। कप्तान लिण्डसे 470 सैनिक और उन भेदी सिपाहियों को साथ लेकर आगे
बढ़े। खाई को पार करने के लिए पुल और सीढ़ियां बनाई गई थीं किन्तु वे ओछी
रहीं। और भी अंग्रेजी सेना कप्तान लिण्डसे की सहायता को पहुंच गई। खाई तैर
कर पार करने की सोची गई। खाई में धड़ा-धड़ अंग्रेजी सैनिक कूदने लगे,
किन्तु जाटों ने एक को भी टूटी दीवार तक न पहुंचने दिया। 1517 कूदने वालों
को जाटों ने गोली का निशाना बना दिया, जिनमें 17-18 तो अफसर थे। इस तीसरे
आक्रमण में जहां अंग्रेजी के इतने आदमी मारे गए, भरतपुर वालों ने केवल 25
आदमी ही खोये। इधर तो अंग्रेज खाई पर जूझरहे थे, उधर पीछे से अमीरखां
पिंडारी ने हमला करके उनके कैम्प में लूट-पाट मचा दी।
अंग्रेजी सेना
हिम्मत हार चुकी थी, किन्तु लार्ड लेक के लिए यह बड़ी शर्म की बात होती कि
वह हार कर लौट जाता। इसलिए उसने सैनिकों में एक घोषणा पत्र बांटकर उत्साह
पैदा करने की चेष्टा की। रसद कम हो चुकी थी। तारीख 23 जनवरी को मि. वेल्स
मथुरा की ओर से रसद ला रहे थे। अमीरखां ने अचानक ही आक्रमण करके रसद को लूट
लिया। उसके पास चार तोपें थीं। मि. वेल्स उसके धावे का सामना नहीं कर सके।
28 जनवरी को आने वाली अंग्रेजी की रसद पर होल्कर, रणजीतसिंह और अमीरखां
तीनों की सेनाओं ने आक्रमण किया, किन्तु सफलता नहीं मिली। क्योंकि इस समय
अंग्रेज सावधान हो चुके थे।
छठी फरवरी को अंग्रेजी सेना ने अपने डेरे
पश्चिम की बजाय भरतपुर की दक्षिण ओर जमाये। खाई को पार करने के लिए 40 फुट
लम्बे और 16 फुट चौड़े बेडे़ बनाए। अमीरखां अपने देश को लौट गया, क्योंकि
महाराज रणजीतसिंह उससे नाराज हो गए थे। अंग्रेजों ने एक सुरंग बनायी,
किन्तु जाटों को जब पता चल गया तो वे उसमें घुस गए और जिस समय अंग्रेजों के
कारीगर उसे आगे खोदने को पहुंचे तो जाटों ने उनको मारकर औजार छीन लिए। इस
युद्ध में अंग्रेजों को नुकसान रहा। 20वी फरवरी को अंग्रेजी सेना ने किले
पर फिर आक्रमण किया। इस बार सेनाध्यक्ष मि. डेन थे। तोपों की धूंआधार मार
से दीवार का कुछ हिस्सा टूट गया। लेफ्टीनेण्ट डेन ने अपनी सेना को उस टूटे
हुए स्थान की ओर बढ़ने को कहा। किन्तु अंग्रेजी सेना इतनी भयभीत थी कि आगे
बढ़ने से उसने साफ इन्कार कर दिया। दीवार का हिस्सा अवश्य टूट गया था,
किन्तु यह किसी को विश्वास नहीं होता था कि वे जाटों के निकट पहुंचकर जीवित
भी रह सकेंगे। डेन के बराबर कहने और धमकी देने पर इतनी बड़ी सेना में से
केवल 14 आदमी तैयार हुए। वे दीवार तक पहुंच गए और ऊपर भी चढ़ गए, किन्तु
जाटों ने उनकी बड़ी दुर्गति की। साथ ही उस बारूद में आग लगा दी जो टूटे हुए
स्थान पर बिछा रखी थी। डेन आगे की ओर थोड़ा भी और बढ़ जाता तो चन्द ही
मिनटों में उसे चौथे आसमान की सैर करनी होती।
इस आक्रमण में 49 अंग्रेज सिपाही और अंग्रेजी सेना के 113 देशी सिपाही मारे गए और 176 अंग्रेज तथा 556 इंडियन सिपाही घायल हुए।
लार्ड लेक बड़ा हैरान हुआ। उसका अब तक जो अभिमान था वह मिट गया। उसे पता
चल गया कि हिन्दुस्तान में ऐसे लोग हैं जो यूरोपियन सैनिकों के होश ठिकाने
कर सकते हैं। उसने अपने साथियों को इकट्ठा किया और हारने के दुष्परिणाम पर
स्पीच देते हुए बताया कि - हम यदि यहां से हारकर लौटते हैं तो हमारी स्थिति
क्या हो जाएगी.21वी फरवरी को चौथा आक्रमण फिर किया गया। इस बार अंग्रेज
सैनिक प्राणों की बाजी लगाकर आगे को बढ़ने लगे। जाटों की तोपें दीवारों के
ऊपर ऊंचे-ऊंचे चबूतरों पर रखी हुई थीं। अंग्रेजी सेना से वीर बिना बुर्जों
पर पहुंचे हुए जाटों का कर ही क्या सकते थे। इसलिए दीवारों पर चढ़ने के लिए
अंग्रेजी सेना के सिपाही दीवार पर एक-दूसरे के कंधे पर चढ़कर चढ़ने लगे।
किन्तु जाटों ने ऊपर से लकड़ी और ईंट-पत्थर फेंककर उनके इस प्रयत्न को
निष्फल कर दिया। आगे बढ़ने वाले को गोली का निशाना बना देते थे। तोपों के
गोलों से जो छेद अंग्रेजी सेना ने किए थे, उसमें से घुसने का प्रयत्न भी
किया गया, किन्तु वहां भी पिटना पड़ा। ऊपर की ओर जो कोई चढ़कर पहुंचता था,
वह लुढ़क पड़ता तो उसके साथ ही कई और भी लुढ़क जाते थे। गोलियों, पत्थरों
और लक्कड़ों की मार से जाटों ने अंग्रेजी सेना के पैर उखाड़ दिए। किन्तु इस
समय लेफ्टीनेण्ट ‘टेम्पल्टन’ नामक एक अंग्रेज किसी तरह से दीवार पर चढ़
गया और बुर्ज पर चढ़कर अंग्रेजी पताका को फहराना ही चाहता था कि जाट वीरों
ने उसे मार डाला और पैर पकड़कर खाई में फेंक दिया। इस समय जाट वीरों ने
अपने कौशलों को और भी बढ़ा दिया। गोले-गोलियों के सिवा मिट्टी और लकड़ियों
के कुण्डों में बारूद भरकर उसमें बत्ती लगा कर फैंकने लगे। यही क्यों,
ईंटों की वर्षा भी आरम्भ कर दी। इस निकट मार से अंग्रेज-सेना मैदान छोड़कर
भाग खड़ी हुई। इस बार के आक्रमण में अंग्रेजों के कई प्रसिद्ध-प्रसिद्ध
सेना-नायक मारे गए। चारों लड़ाइयों में अंग्रजी सेना के 3203 आदमी मारे गए,
ऐसा अंग्रेज लेखकों ने लिखा है। यदि इसी बात को सही माना जाए तो 8-10 हजार
घायल भी हुए होंगे। खाई लोथों से पट गई थी, जिन पर होकर आने-जाने वालों ने
अपना रास्ता बना लिया।
इस चौथी बार भी हार होने के कारण लार्ड लेक की
चिन्ता और भी बढ़ गई। वह बहुत सोचता था किसी भांति विजय प्राप्त हो, किन्तु
विजय स्वप्न मालूम होती थी। जाटों ने इसी समय उनके तोपखाने में आग लगा दी,
इससे अंग्रेजों का और भी नुकसान हुआ। लार्ड लेक को आज की जैसी कठिनाई का
पहले मौका न पड़ा था। अब उसने फौज हटा कर छः मील की दूरी पर उत्तर-पूर्व
में अपने डेरे डाले।
महाराज रणजीतसिंह की यद्यपि विजय हुई थी, फिर भी
उन्होंने यही उचित समझा कि टंटे को मिटा दिया जाए। क्योंकि वह पिछले 6-7
वर्ष से लगातार युद्धों में फंसे हुए थे। राह-कोष में भी घाटा था। इसलिए
संधि की चर्चा चलाई गई। मि. लेक को तो मानो मन चाही वस्तु मिल गई। वे संधि
करने पर तैयार हो गए। लार्ड लेक ने भरतपुर वालों का बड़ा सम्मान किया। अंत
में दोनों ओर से निम्न शर्तों पर सन्धि हो गई -
1. डीग का किला अभी कुछ दिन अंग्रेजों के ही पास रहेगा। यदि भरतपु
महाराज अंग्रेजों से शत्रुता न करेंगें तो डीग का किला उन्हें लौटा दिया जाएगा।
2. भरतपुर नरेश बिना अंग्रेजों की राय के किसी भी यूरोपियन कर्मचारी को अपनी सेना में भर्ती न करेंगे।
3. वह इस युद्ध के व्यय स्वरूप बीस लाख रुपये अंग्रजों को देंगे।
4. भरतपुर नरेश और अंग्रेज परस्पर एक-दूसरे के मित्र और शत्रु को अपना मित्र और शत्रु समझेंगे।
5. उनका एक पुत्र इस सन्धि की पूर्ति में सदैव ब्रिटिश फौजी अफसरों के साथ दिल्ली अथवा आगरे में रहेगा।
6. महाराजा रणजीतसिंह यह बीस लाख रुपया किस्तों में दे सकेंगे।
7. ईस्ट-इंडिया कम्पनी वचन देती है कि जब अन्तिम किस्त के पांच लाख देने
को शेष रह जाएंगे तो गवर्नमेण्ट महाराजा साहब की मित्रता का प्रमाण पाएगी
तो वह किस्त छोड़ देगी।
इस सन्धि-पत्र पर महाराज रणजीतसिंह और लार्ड लेक के हस्ताक्षर हो गए।
भरतपुर में लार्ड लेक की इस हार को विलायत तक बड़े-बड़े रंग देकर पहुंचाया
था। स्वयं लार्ड लेक की इस हार का विवरण इस प्रकार दिया था -
“भरतपुर
की भूमि उबड़-खाबड़ है। साथ में कोई अच्छा इंजीनियर नहीं था, इससे पूर्व
कभी उसकी परिस्थिति का पता लगा नहीं। बस यही कारण था कि विजय प्राप्त नहीं
हुई।”
ड्यूक आफ विलिंगटन ने जो तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड बेलेजली के
भाई थे, लार्ड लेक की हार का कारण इस तरह बताया था - ...उन्हें नगर-वेष्टन
(परकोटे) का कुछ ज्ञान न था इसलिए असफलता हुई ।
इसमें कोई सन्देह नहीं
इस युद्ध का प्रभाव अंग्रेजों के शत्रुओं पर बहुत बुरा पड़ा। भरतपुर के
गौरव-गान की चर्चा तो गीत-काव्यों में गाई जाने लगी।
महाराज रणजीतसिंह
आजीवन अंग्रेजों के मित्र बने रहे। उन्होंने सन्धि का पूर्णतः पालन किया।
भरतपुर-युद्ध को साल भर भी न हो पाया था कि दिसंबर 1805 ई. में उनका
स्वर्गवास हो गया। उनके चार पुत्र थे, बड़े राजकुंवर रणधीरसिंह थे। वही
गद्दी पर बिठाए
Courtsey:: Sodhan Singh Tarar
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