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Wednesday, October 9, 2013

ठाकुर देशराज

ठाकुर देशराज ने अनेक किताबें लिखी हैं परन्तु उनका जीवन परिचय देने वाली पुस्तक का अभाव था. यह कार्य पूर्ण किया है लेखक हरभान सिंह 'जिन्दा ने वर्ष २००३ में. राजस्थान स्वर्ण जयंती प्रकाशन समिति जयपुर के लिए राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी जयपुर ने 'राजस्थान में स्वतंत्रता संग्राम के अमर पुरोधा' पुस्तक माला में अमर स्वाधीनता सेनानी ठाकुर देशराज के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला गया है. ठाकुर देशराज के बारे में नीचे दिया गया विवरण इसी पुस्तक से लिया गया है. भरतपुर जनपद के सर्वाधिक जनसंख्या वाले गाँव जघीना में एक नगण्य से भूमिहीन किसान परिवार में ठाकुर छीतरसिंह सोगरवार के घर माघ शुक्ला एकादशी संवत -१९५२ (सन १८९५) को देशराज का जन्म हुआ. [15] पत्थर पर भी कार्यकर्ता पैदा कर संघर्षों को सफलता के सोपान तक पहुँचाने की क्षमता रखने वाले तथा पीड़ितों के सच्चे साथी की छवि धारण करने वाले ठाकुर देशराज के व्यक्तित्व का मूल्यांकन उनकी बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न कृतित्वों के माध्यम से ही किया जा सकता है. शोषितों के सच्चे हिमायती की पहचान रखने वाला यह इन्सान समाज सुधारक, सफल आन्दोलनकर्ता, प्रमाणिक इतिहासकार के साथ साथ एक विद्रोही पत्रकार के रूप में भी बड़ी हैसियत का धनी था. ठाकुर साहब ने अपना सार्वजनिक जीवन स्वामी दयानंद सरस्वती से प्रेरित होकर प्रारंभ किया था. चंद दिन राजकीय प्रायमरी स्कूल में शिक्षक के पद पर सेवारत रहकर नौकरी से त्याग पत्र दे दिया और देश सेवा और समाज सेवा का जो बीड़ा उठाया तो फिर कदम पीछे नहीं हटाये. [16] इतिहासकार के रूप में जाट इतिहास (१९३४) - ठाकुर देशराज सफल राजनेता, समाजसेवी और कुशल संगठक के साथ ही प्रमाणिक इतिहासकार और जागरूक पत्रकार भी थे. उन्होंने सर्वप्रथान १९३१ में 'जाट इतिहास' का लेखन प्रारंभ किया जो सन १९३४ में पूरा हुआ. ५४० पृष्ठीय इस विशाल ग्रन्थ की भूमिका 'वीर अर्जुन' के यशस्वी संपादक श्री इन्द्र विद्यावाचस्पति ने लिखी तथा श्री बृजेन्द्र साहित्य समिति आगरा ने इसे प्रकाशित किया था. यह अत्यंत खोजपूर्ण विशाल ग्रन्थ जाट समाज की उत्पति और विकास पर आज भी प्रमाणिक ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठापित है. इस ग्रन्थ ने यह सिद्ध कर दिया कि केवल जन्म के आधार पर अपने आप को कुलीन घोषित करने वाला सामंती वर्ग ही समाज का भाग्य विधाता नहीं है, अपने पुरुषार्थ और परिश्रम से रोटी कमाने वाले मेहनतकश समाज को निम्न श्रेणी का समझना उसके साथ नाइंसाफी है. [30] ठाकुर देशराज के 'जाट इतिहास' में तत्कालीन मिथकों को खंडित करने वाले कई तथ्य समाहित थे. उन्होंने पुस्तक में प्रतिपादित किया कि अतीत में राजपूत कोई जाति नहीं थी बल्कि उसका अद्भव जाट, अहीर और गुजरों से हुआ है. इससे राजपूतों में आक्रोश व्याप्त हो गया और दोनों जातियों में परस्पर वैमनस्य बढ़ गया. इस हालत में संघर्ष टालने के लिए कुंवर हुकमसिंह शाहपुरा आगे आये और उनके प्रयत्न से दयानंद अर्द्ध शताब्दी समारोह के अवसर पर अजमेर में जाट, राजपूत, गुजर एवं अहीरों की बैठक बुलाई गई. शेखावाटी से नेतराम सिंह गौरीर एवं सरदार हर लाल सिंह के नेतृत्व में एक बड़ा दल इसमें भाग लेने के लिए गया. शाहपुरा नरेश ने इस अवसर पर कहा कि हमें जातियों की ऊंचता एवं नीचता को स्थान नहीं देना चाहिए. मैं यह सोच भी नहीं सकता कि कोई व्यक्ति , जो इतिहास लिख रहा है वह जाटों को ऊँचा और राजपूतों को नीचा दिखाने की चेष्ठा करेगा. यह इशारा ठाकुर देशराज की और था. ठाकुर देशराज ने तुरंत उठकर इसका प्रतिवाद किया और कहा कि उन्होंने जाट इतिहास को राजपूत इतिहास की तरह नहीं लिखा है जिनमें जाटों को गिराने की चेष्ठा की गई है - जिनमें केवल राजपूतों को समाज में सर्वश्रेष्ठ स्थापित करने की कोशिश की गई है. ऐतिहासिक सच्चाई प्रकट करने में यदि किसी का मद भंग होता है तो उनके पास कोई उपाय नहीं है. उन्होंने सारी बात ऐतिहासिक तथ्यों पर केन्द्रित रखी जिसका किसी के पास जवाब नहीं था. [31] मारवाड़ का जाट इतिहास (१९५४) - १९३४ में सीकर में आयोजित जाट प्रजापति महायज्ञ के अवसर पर ठाकुर देशराज ने 'जाट इतिहास' प्रकाशित कराया, तब से ही मारवाड़ के नेता चौधरी मूलचन्दजी के मन में लगन लगी कि मारवाड़ के जाटों का भी विस्तृत एवं प्रमाणिक रूप से इतिहास लिखवाया जाए क्योंकि 'जाट इतिहास' में मारवाड़ के जाटों के बारे में बहुत कम लिखा है । तभी से आप ठाकुर देशराज जी से बार-बार आग्रह करते रहे । आख़िर में आपका यह प्रयत्न सफल रहा और ठाकुर देशराज जी ने १९४३ से १९५३ तक मारवाड़ की यात्राएं की, उनके साथ आप भी रहे, प्रसिद्ध-प्रसिद्ध गांवों व शहरों में घूमे, शोध सामग्री एकत्रित की, खर्चे का प्रबंध किया और १९५४ में "मारवाड़ का जाट इतिहास" नामक ग्रन्थ प्रकाशित कराने में सफल रहे । सिक्ख इतिहास (१९५४) - इसी प्रकार ठाकुर देशराज ने दूसरा बड़ा एतिहासिक ग्रन्थ 'सिक्ख इतिहास' लिखा जो दिल्ली से प्रकाशित हुआ है. विद्वानों कि दृष्टि में इस ग्रन्थ को सिक्ख जाती का 'एन्सायक्लोपीडिया' कहा जा सकता है. इसके प्रकाशन से पूर्व हिंदी में सिक्ख समाज पर कोई अन्य विषद और प्रामाणिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं था. [32] गुरुमत दर्शन - इसके अलावा आपकी एक और पुस्तक 'गुरुमत दर्शन' प्रकाशित हुई जिसकी भी विद्वत जगत में काफी प्रशंसा हुई. [33] अन्य प्रकाशित ग्रंथों में भरतपुर के देशभक्त राजा किशन सिंह के सन्दर्भ में 'नरेन्द्र केशरी', 'वीर तेजाजी की जीवनी' 'राष्ट्र निर्माता', 'शेखावाटी की जागृति', 'किसान आन्दोलन के चार दशक', 'आर्थिक कहानियां' और 'भारत के किसान जनसेवक' अदि प्रमुख हैं. मृत्यु से पूर्व आप 'बुद्ध से पूर्व का भारत' लिखने में अपना योगदान कर रहे थे जो अभी तक अप्रकाशित है. [34] पारिवारिक जीवन ठाकुर साहब को जीवन की ऊँचाइयों तक पहुँचाने में आपकी पहली पत्नी श्रीमती उत्तमा देवी का महत्वपूर्ण योग रहा है जो आगरा जिले के कठवारी ग्राम के एक सामान्य कृषक परिवार से थी. वे ठाकुर साहब के साथ सुख-दुःख की हर घड़ी में सच्ची अर्द्धांगिनी सिद्ध हुई. शेखावाटी के किसान आन्दोलन में हर मोर्चे पर आर्य समाज के भजनोपदेशक के रूप में सक्रीय सहयोग देने वाले और सामंती तत्वों के कोपभाजन बन अनेक पीड़ाओं को हंसते-हंसते सहन करने वाले ठाकुर हुकम सिंह श्रीमती उत्तम देवी के सगे भाई थे. [36] ठाकुर देशराज की पहली पत्नी की असमय मृत्यु के कारण ठाकुर साहब की दूसरी शादी अछनेरा के समीप अरदाया गाँव में श्रीमती त्रिवेणी देवी के साथ हुई. श्रीमती त्रिवेणी भी श्रीमती उत्तमा देवी के समान ही ठाकुर साहब की सच्चे अर्थों में जीवनसंगिनी थी. वे स्वतंत्रता आन्दोलन में भी निरंतर सक्रिय रहीं तथा डेढ़ वर्ष के कारावास की सजा भी भोगी. [37] दोनों पत्नियों के अलावा ठाकुर साहब का साथ संकट की घड़ियों में देने वाले उनके अनुज खड़गसिंह थे. ठाकुर साहब द्वारा लिखे गए संस्मरण 'मेरी जेल यात्रा के १०८ दिन' में इनका अनेक स्थानों पर उल्लेख मिलता है. ठाकुर साहब के एक मात्र पुत्र हरिसिंह वर्तमान में एक सहकारी बैंक में मैनेजर पद पर कार्यरत हैं. [38] स्वर्गवास ठाकुर देशराज ने १७ अप्रेल १९७० की ब्रह्म्बेला में स्नानादि से निवृत होकर ईश वंदना के दौरान अपनी इहलीला को विराम दिया. [39] Courtsey:: राजस्थान की जाट विभूतिया

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