Visitor

Wednesday, November 13, 2013

पिछड़ों और दलितों के अधिकारों पर डाका



भारतीय संविधान के अनुसार प्रजातंत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए इसके तीन मुख्य अंग निर्मित किए गए, जिसमें सबसे पहले विधानपालिका है, जिसका कार्य है कि केंद्र स्तर राज्य स्तर पर प्रजा के लिए कानूनों का  निर्माण करे। दूसरा अंग कार्यपालिका है, जिसका कर्तव्य होता है कि विधानपालिका द्वारा बनाए गए कानूनों को  पूरे देश में लागू करवाए और प्रजा द्वारा इनका पालन करवाए। तीसरा अंग न्यायपालिका है, जिसका कर्तव्य है कि विधानपालिका द्वारा बनाए गए संविधान और कानून की व्याख्या करना तथा कार्यपालिका द्वारा यदि गलत तरीके से कोई कानून लागू किया गया, तो उसके विरूद्ध कानूनी कार्रवाई करना। यदि संविधान कानूनों के साथ कार्यपालिका उन्हें लागू करने में ढि़लाई करती है या उनकी व्याख्या गलत तरीके से करती है, तो देश की न्यायपालिका इस पर कड़ी नजर रखते हुए कानूनों को सही रूप से लागू करवाने के लिए कार्य करती है।
जब देश में सबसे पहले आरक्षण दिया गया तो दलित जातियों को पूरे देश में केंद्रीय स्तर पर 15 प्रतिशत आरक्षण निर्धारित किया, जो उनकी जनसंख्या के अनुसार है। इसी प्रकार जनजातियों की देश में कुल संख्या साढ़े सात प्रतिशत है, उनको भी केंद्रीय स्तर पर साढ़े सात प्रतिशत का आरक्षण दे दिया। लेकिन जब पिछड़ी जातियों की बारी आई, तो उनके साथ सरासर अन्याय किया गया क्योंकि मंडल कमीशन के आधार पर पिछड़ी जातियों की जनसंख्या पूरे देश में 54 प्रतिशत थी, लेकिन बगैर किसी कारण के उनके इस अधिकार को आधा करके केवल 27 प्रतिशत का लाभ दिया गया, जो सर्वथा अनुचित ही नहीं, बल्कि गैर संवैंधानिक है क्योंकि यह कटौती कार्यपालिका के द्वारा कानून बनाकर नहीं की गई, जिसके अधिकार क्षेत्र में यह अधिकार आता है क्योंकि संविधान के अनुसार बड़ा स्पष्ट है कि कानून बनाना केवल विधानपालिका का कार्य है। फिर किस आधार पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने यह अधिकार अपने हाथ में लिया। ऐसा लगता है कि ये न्यायाधीश उच्च जातियों के थे। इसीलिए उन्होंने यह पक्षपात किया है।
इसी प्रकार पिछड़ी जातियों के विकास को रोकने के लिए उनके आरक्षण पर क्रिमिलेयर की तलवार टांग दी गई और उसके लिए आय सीमा की शर्त थोप दी गई, जो वर्तमान में बढ़ाकर छह लाख कर दी गई। क्रिमिलेयर का अर्थ है कि किसी विशेष आर्थिक सीमा के दायरे में आने पर आरक्षण का लाभ नहीं उठा सके। इस क्रिमिलेयर की निर्धारित सीमा समय-समय पर बढ़ती रहती है। उदाहरण के लिए यह सीमा अभी कुछ महीनों से चाढ़े चार लाख रूपए से बढ़ाकर छह लाख कर दी गई है, जिससे स्पष्ट है कि क्रिमिलेयर की शर्त लगाकर पिछड़ों के आर्थिक और शैक्षणिक विकास को रोकना है क्योंकि कोई भी क्रिमिलेयर के दायरे में आने से उसको आरक्षण का लाभ नहीं होगा जिसके कारण वह अपने बच्चों को उच्च कोटि की शिक्षा जैसे कि आईआईटी, आईआईएम एवं एमडी तथा एमएस आदि दिलवा पाए, जहां पर ऐसी शिक्षा प्राप्त करने के लिए अधिक पैसे खर्च करने पड़ते हैं, इससे स्पष्ट है कि पिछड़ी जातियों के लिए यह कानून बनवाकर पिछड़ों के विकास को एक सीमा तक रोक दिया गया है, जो स्वयं ही भारतीय संविधान के मौलिक सिद्धांत के विपरीत है। यह कानून भी विधानपालिका द्वारा नहीं बनवाया गया, बल्कि न्यायालयों ने बनाया, जिन्हें ऐसा कानून बनाने का कोई अधिकार ही नहीं है।
जिस प्रकार पिछड़ी जातियों के अधिकारों में कटौती करते हुए उनके आरक्षण को 27 प्रतिशत तक सीमित कर दिया गया, उसी कटौती को बल देने के लिए पूरे आरक्षण को पचास प्रतिशत की सीमा में बांध दिया गया, जो किसी भी न्याय की परिधि में नहीं आता है क्योंकि यह कानून भी रतीय न्यायपालिका द्वारा नहीं बनाया गया, जिसे कानून बनाने का अधिकार है। वर्तमान में जब जनजाति, अनुसूचित जाति तथा पिछड़ी जातियों की जनसंख्या हमारे देश में 85 प्रतिशत से अधिक है, तो इनके आरक्षण को 50 प्रतिशत में सीमित करना किस आधार पर न्यायोचित कहा जा सकता है?
प्राय: देखने में आया है कि लगभग 20-25 सालों से हमारे देश की विधानपालिका अपने कार्यक्षेत्र से हटती नजर रही है अर्थात अपनी जिम्मेवारी को निभाने में असफल हो रही है। इसी कारण देश की न्यायपालिका ने विधानपालिका के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया और देश की विधानपालिकाएं इस हस्तक्षेप को मूकदर्शक बनकर देखती रही है, जो भारतीय प्रजातंत्र के लिए किसी भी तरह से उज्जवल भविष्य की कामना नहीं करती। देखने में आया है कि आज हमारे देश में किसी नदी या नाले को साफ करना हो या पेड़ों को लगाना या काटना हो या किसी खान से पत्थर ही निकालना हो तो इसका आदेश भी न्यायपालिका ही देती है। जैसे प्रतीत होता है कि वर्तमान में पर्यावरण विभाग भी न्यायपालिका के अधीन कार्य कर रहा है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है।
इससे भी बढक़र संविधान की किसी भी धारा के तहत किसी भी जाति या वर्ग को आरक्षण देने के लिए आर्थिक कोई भी शर्त नहीं है, लेकिन न्यायालयों द्वारा और सरकारों द्वारा बनाए गए आयोगों ने बार-बार आर्थिक की शर्त लगाकर स्वयं ही भारतीय संविधान का तथा कार्यपालिका का मखौल उड़ाया है क्योंकि आरक्षण में आर्थिक आधार की शर्त थोपकर भारतीय संविधान का अनादर किया है क्योंकि भारतीय संविधान के अनुसार किसी भी जाति या वर्ग को आरक्षण देने के लिए केवल दो ही शर्तें हैं : पहला सामाजिक पिछड़ापन तथा दूसरा शैक्षणिक पिछड़ापन है। फिर आर्थिक आधार वाली बात कहां से गई?
भारतीय संविधान के अनुसार आरक्षण लागू करने का एकमात्र उद्देश्य पूरे भारतवर्ष के लोगों में सामाजिक समानता लाना है और इसके अतिरिक्त दूसरा कोई भी उद्देश्य नहीं है। इसलिए यह स्पष्ट है कि हमारे देश में सामाजिक समानता आने तक ये आरक्षण लागू रहेगा और लागू रहना भी चाहिए। संविधान में इसके लिए कहीं भी समय की सीमा निर्धारित नहीं की गई है, केवल इतना कहा गया था कि इस बारे में दस साल के बाद इसका अवलोकन होना चाहिए कि देश में कहां तक सामाजिक समानता गई है। लेकिन लोगों ने दुष्प्रचार करना शुरू कर दिया कि संविधान के अनुसार दस साल के लिए आरक्षण लागू किया गया था, ऐसा कहना पूर्णतया निराधार है। ये प्रचार उच्च जातियों द्वारा कई वर्षों से किया जा रहा है, जिसके प्रभाव में पिछड़े और दलित भी जाते हैं। सामाजिक समानता का मापदंड एक ही होगा, जब उच्च जातियों के लोग पिछड़ी और दलित जातियों से आपस में अपने बच्चों के विवाह संबंध नि:संकोच करने लगेंगे और सामाजिक तौर पर गांवों में एक ही जगह बैठकर सामाजिक समारोहों में खाना खाएंगे या हुक्का गुडग़ुड़ाएंगे, उस समय यह स्पष्ट दिखाई देगा कि हमारे देश में सामाजिक समानता गई है।
प्राय: लोग संविधान की धारा 14 और 16 का उल्लेख करते रहते हैं कि संविधान में किसभी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति नस्ल के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा और सभी को समान अवसर दिए जाएंगे। आमतौर पर लोग इसे सभी को समान मानने लग जाते हैं और आरक्षण को समाप्त करने की गुहार लगाते हैं। संविधान की इसी 16 धारा के तहत नीचे बड़ा स्पष्ट लिखा है कि जो सामाजिक स्तर पर पीछे हैं, उनको पहले समानता पर लाना होगा, उसके बाद ही सबको एक जैसे अवसर देने की बात आएगी। उदाहरण के लिए जब हम दौड़ करवाने की प्रतिस्पर्धा करवाते हैं, तो पहले सभी को अवसर देकर एक लाइन पर खड़ा करते हैं। उसी के बाद हम उन्हें दौडऩे का इशारा करते हैं और जिसमें जितनी क्षमता होती है, उसी के अनुसार वे दौड़ते हैं। जब हमारे देश में आदिवासी, दलित और पिछड़े उस दौडऩे वाली लाइन के अभी नजदीक ही नहीं पहुंचे हैं, तो हम दौडऩे का इशारा किस आधार पर कर सकते हैं? अभी तो सामाजिक समानता की बात तो बहुत दूर है, क्षणिक तौर पर भी इन पिछड़े हुए समाजों के लोग विकसित समाजों के कहीं समीप भी नहीं हैं।
अक्सर यह दुष्प्रचार किया जाता है कि यदि आरक्षण वाले डॉ. बन गए तो ऑपरेशन के समय वे गलती से पैर की जगह हाथ और हाथ की जगह पैर काट देंगे। हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि पूरे देश में 65 प्रतिशत मेडीकल की सीटें बिकाऊ होती हैं, जिसे केवल धनी लोग ही खरीद सकते हैं। ये सब सीटें आरक्षण वाली जातियों के पहुंच से बाहर होती हैं। सुना है कि हरियाणा के मौलाना मेडीकल कॉलेज में इस वर्ष एमबीबीएस की एक सीट की कीमत साठ लाख रुपए थी, तो एमएस और एम० डी  की सीट एक करोड़ से भी अधिक की थी। आदिवासी, दलित और पिछड़ों में ऐसे कितने व्यक्ति होंगे, जो इन सीटों को खरीद सकते हैं? दूसरा, आज तक आरक्षण पाने वाले डॉक्टरों ने कितने मरीजों के गलत हाथ और पैर काट डाले? जबकि पिछले दिनों किडनी चोरी कांडों में बड़ी जातियों लोग लिप्त पाए गए थे। फिर ये दुष्प्रचार क्यों? हमें इस बारे में गहराई से सोचना होगा। याद रहे, आरक्षण होने के कारण न्यायपालिका और मीडिया में दलित और पिछड़ों की भागीदारी के बराबर है, जिसका अर्थ है कि आधे प्रजातंत्र में इनकी कोई भागीदारी नहीं है। इसके लिए भी आरक्षण अति आवश्यक है।
हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में आरक्षण लागू करने के पीछे हमारी वर्ण व्यवस्था जिम्मेवार रही है, जिसमें दलितों और पिछड़ों से पशुओं की तरह काम लिया जाता रहा और उन्हें हर दृष्टि से हीन और कमजोर बनाने के प्रयास होते रहे वर्ना हमारे ही देश के उच्च जाति के लोग फ्रांसीसी, डच, मुगल और अंग्रेज आक्रांताओं के तलवे चाटने रहे और हमें भी उनके तलवे चाटने के लिए मजबूर किया, लेकिन अफसोस है कि हम दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को इन्होंने कभी गले नहीं लगाया। इसी कारण हमारा देश भी हजारों सालों तक लाम रहा और इसी भेदभाव और छूआछूत के कारण हमारे देश के सन 1947 में टुकड़े हुए, क्योंकि जब गोल मेज कांफ्रेस में जिन्ना से पूछा गया कि वे मुस्लिम धर्मियों के लिए अलग देश क्यों चाहते हैं, तो उन्होंने कहा था कि जब इस देश के हिंदू धर्म के मानने वाले अपने ही भाईयो को तो धार्मिक स्थलों में प्रवेश करने देते हैं और ही अपने घरों में। इससे भी बढक़र भी वे अपने ही धर्म भाईयों को छूने से ही अपवित्र हो जाते हैं, तो फिर वे मुस्लिम धर्मियों के साथ किस तरह न्याय कर पाएंगे? जिन्ना का यह तर्क ठोस सच्चाई पर आधारित था और यही तर्क देश के बंटवारे का मूल कारण बना और जब आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों को आरक्षण मिला और जागृत होने लगे, तो आज उच्च जाति के लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि देश में कोई जात-पात नहीं होनी चाहिए क्योंकि वे जानते हैं कि अब दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग जागरूक हो रहे हैं और आरक्षण के बल पर आगे बढ़ रहे हैं, तो उच्च जाति के लोगों को तकलीफ होने लगी, क्योंकि वे कभी नहीं चाहते कि ये पिछड़े लोग उनके बराबर आएं। ये भी प्रचार किया जा रहा है कि जात-पात के कारण देश की अखंडता को खतरा है, इसलिए जात-पात समाप्त होनी चाहिए। जबकि देश को जाति-पाति से कोई खतरा नहीं है, क्योंकि हमारे देश में छह हजार से अधिक जातियां हैं और देश के छह हजार बंटवारे कभी नहीं हो सकते। ऐसा कहना उच्च जातियों का एक डर है क्योंकि जब भी कभी भविष्य में देश का बंटवारा होगा, वह केवल धर्म के आधार पर होगा, जैसे पहले हुआ था, कि जाति के आधार पर इन्हीं लोगों ने अपने स्वार्थ में पहले जातियां बनाईं और आज इन्हीं को इन जातियों से खतरा महसूस होने लगा तो कहने लगे कि इनको समाप्त कर दो अर्थात ये उनकी निजी दुकान हो गई है, जब चाहें उसे खोल दो और जब चाहे इसे बंद कर दो।
उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि पिछड़ों के आरक्षण के अधिकारों पर कटौती करके सरासर एक डाका डाला गया है, जो किसी भी तरह से तो सवैंधानिक है और ही न्यायोचित है। दूसरा, हमारे देश में आरक्षण भविष्य में भी लागू रहना चाहिए, जब तक सभी की सामाजिक समानता नहीं हो जाए । उपरोक्त सच्चाई को स्वीकार करते हुए जाट समाज को स्वयं को मानसिक तौर पर भी पिछड़ा स्वीकार करना चाहिए क्योंकि हमारे पूर्वज चौ. छोटूराम जी ने जाटों को बार-बार पिछड़ा कहा था। जय पिछड़ा और दलित

साभार :
हवासिंह सांगवान जाट 

No comments:

Post a Comment