“माँ, तुम मुझे छोडकर क्यों चली गईं माँ...तुम्हें पता है मैं तुमसे कितना प्यार करता
हूँ....अब मैं तुम्हारे बिना कैसे जिऊंगा माँ.... तूने बहुत दुख झेले हैं
माँ.... मैं भी तुझे कोई सुख नहीं दे पाया... अब तू चैन से सो जा
माँ....सुनसान कब्रिस्तान में एक ताज़ी कब्र के पास बैठकर फूट-फूटकर रोता
हुआ यह 18 साल का लड़का कोई और नहीं, बल्कि हिटलर था। जी हाँ, वही एडल्फ
हिटलर जो आज तक क्रूरता का पर्याय बना हुआ है।
हिटलर का जन्म 20 अप्रैल 1889 को आस्ट्रिया के ब्रोनों नामक गाँव में
मोवियन(मौर्य) वंश में हुआ था। हिटलर के पिता आर्यों की जट जाति के किसान
थे। वे कस्टम विभाग में एक साधारण से कर्मचारी थे।
हिटलर के जन्म के समय जर्मन साम्राज्य दो साम्राज्यों में बंट चुका था-
आस्ट्रिया और हंगरी। एक अजीब सा संयोग है कि यह दशक क्रांतिकारियों के ही
नाम था। लेनिन, मुसोलिनी और स्टालिन सभी इसी काल में हुए।
हिटलर का बचपन बहुत कष्टमय था। उसकी माँ उसके पिता की तीसरी पत्नी थी।
सगे-सौतेले सब मिलाकर हिटलर सात बहन-भाई थे। हिटलर के पिता रिटायर कर्मचारी
थे लिहाजा परिवार के खर्च के हिसाब से आमदनी नहीं थी। उनका स्वास्थ्य भी
ठीक नहीं रहता था, वे फेफड़ों की गंभीर बीमारी से पीड़ित थे, सो हमेशा ही कुछ
चिड़चिड़े रहते थे। माँ का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता था। सभी बच्चों की
देखभाल करते-करते और पिता के रूखे व्यवहार के कारण वह प्रायः बीमार और दुखी
रहती थी। हिटलर अपनी माँ को बेहद चाहता था और उसके दुख का कारण पिता को
समझता था। इसी वजह से वह अपने पिता से कुछ कटा-कटा सा रहता था।
कुछ समय बाद पिता की मृत्यु हो गयी। माँ बिलकुल टूट गईं। उन्हें कैंसर था,
पर वे अपनी बीमारी हिटलर से छिपाती थीं। वह चाहती थीं कि हिटलर एक बड़ा
अधिकारी बनकर अपने पिता की इच्छा को पूरा करे, पर हिटलर पर तो पेंटर बनने
की धुन सवार थी। वह बचपन से ही बहुत अध्ययन-मनन करता था। उसके बहुत अधिक
मित्र नहीं थे। जो थे, वे भी हिटलर की भाषण देने की आदत से परेशान रहते थे।
कुछ समय बाद माँ भी मर गईं और हिटलर गाँव छोडकर वियना आ गया। यहाँ आकर
उसने न सिर्फ शहर की जगमग देखी बल्कि एक कड़वा सच भी जाना। उसने देखा कि
जर्मनी पर यहूदियों का कब्जा हो चुका है। हर बड़े पद पर वे मौजूद हैं और
जर्मन जनता का शोषण कर रहे हैं। उसके अंदर जर्मन राष्ट्रवाद कूट-कूट कर भरा
था। जर्मन खून के इस ठंडेपन पर उसका खून खौलता था। पर वह कुछ कर नहीं सकता
था। वह अपनी भावनाओं को चित्रों में ढालता। उसका एक मित्र इन चित्रों को
बेचकर धन लाता जिसे आधा-आधा बांटकर वे दोनों गुज़ारा करते। पर, यह व्यवस्था
अधिक दिन नहीं चली क्योंकि हिटलर का विश्वास अपने उस मित्र पर से हट गया।
हिटलर ने उसकी पिटाई की और वह भाग गया।
इसी बीच हिटलर ने एक नाटक देखा जिसका एक पात्र भाषण कला में पारंगत है और
अपने भाषण से सभी को अपने वशीभूत कर लेता है। इस नाटक का हिटलर पर गहरा
प्रभाव पड़ा। हिटलर का अध्ययन दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। उसने यह समझ लिया
था कि, मार्कस्वाद, समाजवाद और लोकतन्त्र राष्ट्रवाद को खत्म करने के
हथकंडे भर हैं। अपनी आत्मकथा ‘मीन केंफ’ में वह लिखता है कि, 'एक बात हमें
कभी नहीं भूलनी चाहिए, बहुमत व्यक्ति का विकल्प नहीं हो सकता। बहुमत की
वकालत करना मूर्खता ही नहीं राजनैतिक कायरता भी है। जिस प्रकार सौ मूर्ख
मिलकर एक बुद्धिमान व्यक्ति की भूमिका नहीं निभा सकते उसी तरह सौ कायर
मिलकर एक बहादुरी का फैसला नहीं ले सकते।'
हिटलर ने मार्क्सवादियों और यहूदियों के षड्यंत्र को समझ लिया था। गरीबों
को लोकतंत्र और मार्कस्वाद के नाम पर भड़का कर यहूदी, जर्मन साम्राज्य को
समाप्त करना चाहते थे, यह समझकर वह यहूदियों से नफरत करने लगा था जो हर दिन
चरम की ओर बढ़ रही थी। मनन के बाद हिटलर इस नतीजे पर पहुंचा कि, बहादुर
व्यक्तियों का देश में अभाव हो जाये तो वह देश नहीं बच सकता। केवल अपने लिए
जीने वाले लोग देश के लिए कुर्बानी नहीं दे सकते। जब मानव अधिकार राज्य के
अधिकार से बड़े हो जाएँ तो राज्य का नियंत्रण मनुष्यों से हट जाता है।
प्रजातन्त्र यही करता है। प्रेस उसे ऐसा करने में सहयोग देती है।
स्वार्थों का खेल शुरू हो जाता है, राष्ट्रियता पीछे छूट जाती है।
24 वर्ष की आयु तक हिटलर इस नतीजे पर पहुँच चुका था कि, लोकतन्त्र देशहित
में नहीं है। देश की राष्ट्रवादी ताकतों को एकजुट कर इस ढांचे को बदलना
होगा। मुख्य भूमिका राष्ट्रवादी फौज की होगी जो सत्ता पर अधिकार करके
राष्ट्र विरोधी ताकतों का नामोनिशान मिटा देगी। हिटलर ने इसकी शुरुआत सेना
में भर्ती परीक्षा में शामिल होने से की, पर वह रिजेक्ट हो गया। उसे बहुत
धक्का लगा।
जहां चाह, वहाँ राह। उसी समय आस्ट्रिया के राजकुमार की हत्या हो गयी। युद्ध
अवश्यंभावी हो गया और हिटलर को रिजर्व सेना में भर्ती कर लिया गया। जर्मनी
हार गया। हिटलर को इससे सदमा लगा। वह दिन-रात हार के कारणों पर विचार करता
रहता। कारण सैनिकों का गिरा मनोबल था। उनमें राष्ट्रवाद की कमी थी। अब
हिटलर सैनिकों को भाषण देकर उनमें राष्ट्रप्रेम भरने लगा। उसका भाषण सुन
सैनिकों में जोश आ जाता। उनकी आँखें चमकने लगतीं।
एक दिन हिटलर को जर्मन वर्कर्स पार्टी के मंच से बोलने का मौका मिला। वह
ढाई घंटे बोला। हर किसी ने सांस रोककर उसका भाषण सुना। इसके बाद उसकी धूम
मच गयी। उसे भाषण देने के लिए बुलाया जाने लगा। वह कहीं भी रह लेता, कुछ भी
खा लेता। पढ़ना और भाषण देना उसका जुनून बन चुका था। अब हिटलर के
अनुयायियों की एक टीम बन चुकी थी। हिटलर ने पूर्व सैनिक, बेरोजगार युवाओं
और अन्य राष्ट्रवादियों को जोड़कर सेना बनाई। इसका नाम था 'स्टोर्म
एब्टीलिंग' अर्थात तूफानी पार्टी। इसी का चर्चित नाम नाजी पार्टी पड़ा।
हिटलर से सरकार को अब खतरा लगने लगा था। उसकी सभाओं में गड़बड़ी फैलाने की
योजना बनाई गयी। एक सभा में हिटलर के साथियों ने बीच में घुसकर गड़बड़ी
फैलाने वाले ऐसे लोगों को ढूंढ-ढूंढकर मारा। हिटलर ने मंच से उन्हें
हिदायतें दीं। बहुत खूनखराबा हुआ। विरोधी जान बचाकर भाग गए। हिटलर के
समर्थक भी लहूलुहान हुए और उन्होने उसी हालत में फिर से बैठकर हिटलर का
भाषण सुना। दो घंटे के इस भाषण में बार-बार तालियाँ बजीं। इससे सरकार और
हिल गयी। 26 फरवरी 1924 को हिटलर और उसके साथियों पर गद्दारी कर आरोप लगा
और मुक़द्दमा चला। पाँच वर्ष की सज़ा सुनाई गयी। जेल से बाहर आकर हिटलर ने
बिखर चुकी नाजी पार्टी को फिर से खड़ा करने को कमर कस ली। यहूदियों के
अत्याचार और जर्मन की शर्मनाक हार उसके दिमाग से एक पल को भी नहीं निकलती
थी और उसे इन सबका एक ही हल दिखता था – किसी राष्ट्रवादी की तानाशाही।
तेज़ गति से आगे बढ़ते हुए हिटलर 1932 में चांसलर बना। 30 जनवरी 1933 से
अगस्त 1934 तक हिटलर ने नाजी क्रांति को अंजाम दिया। हिटलर ने अपनी सेना के
बल पर एकतरफा चुनाव लड़ा। दूसरी पार्टियों के पोस्टर तक नहीं लगने दिये।
चुनाव जीतने की बाद हिटलर ने मंच से घोषणा की – “जर्मनी से मार्क्सवादियों
को निकालकर बाहर फेंक दिया जायेगा। देश के साथ गद्दारी करने वालों के लिए
इस देश में कोई जगह नहीं। मैं अपने कम्युनिस्ट दोस्तों को समझा देना चाहता
हूँ कि वे नाज़ियों से टक्कर लेने के इरादे भूल जाएँ, नाज़ियों से टकराने का
नतीजा केवल मौत होगा। इस देश में मेरी मर्ज़ी के बिना पत्ता तक नहीं
हिलेगा।” हिटलर ने जो कहा उसे किया भी। हजारों कम्युनिस्ट मारे गये। 14
जुलाई 1934 को सरकारी गजेट प्रकाशित हुआ जिसमें कहा गया कि,
1- नेशनल सोशलिस्ट जर्मन वर्कर्स पार्टी ही अब राष्ट्र का एकमात्र
राजनैतिक दल है, बाकी सभी दलों की मान्यता रद्द कर दी गयी है।
2- जो भी कोई इस देश में नए राजनैतिक दल का गठन करेगा उसे तीन वर्ष
की कठोर या इससे भी अधिक सज़ा कानून के अनुसार दी जाएगी।
तूफानी सेना के सदस्यों की संख्या 25 लाख पार कर चुकी थी। वे हिटलर के एक
इशारे पर जान देने को तैयार थे। विरोधी हिटलर की दहशत में थे। हिटलर ने
1934 तक जर्मनी पर अपना एकछत्र राज कायम कर लिया। हर ऊंचे पद पर नाज़ियों को
नियुक्त किया। बर्सायल संधि के बावजूद सेना का विस्तार किया। कारखानों
में आधुनिक हथियार तैयार करवाए। खेती में उत्पादन पर ध्यान दिया। विकास के
लिए उद्योगों को बढ़ावा दिया। हिटलर का आज भी वही उद्देश्य था जो तब था जब
वह लाइब्रेरी में बैठकर विचार किया करता था – जर्मन राज्य को उसका खोया हुआ
गौरव वापस दिलवाना।
जर्मन की इस तरक्की से ब्रिटेन उससे जलने लगा। पर हिटलर टकराव से बचना
चाहता था क्योंकि यह जर्मनी के निर्माण का समय था। हिटलर ने मुसोलिनी से
मित्रता का हाथ बढ़ाने के लिए उसे जर्मनी आमंत्रित किया। मुसोलिनी आया और
जर्मनी की उन्नति देखकर हैरान रह गया। दोनों में मैत्री संबंध स्थापित हो
गए। अपनी कूटनीति से हिटलर ने आस्ट्रिया को जर्मनी में मिला दिया। वह पत्र
जिस पर लिखा था, ‘आस्ट्रिया जर्मन रीच का एक प्रांत है’ पढ़ते ही हिटलर इतना
भावुक हो गया कि रो पड़ा। उसके साथी हैरान रह गए। वह अपनी माँ की कब्र पर
भी गया, “माँ तू चाहती थी न कि तेरा बेटा बड़ा आदमी बने, देख तेरा बेटा
कितना बड़ा आदमी बन गया..... मैंने अपना और तेरा सपना पूरा कर लिया माँ...
आस्ट्रिया जर्मनी में वापस आ गया.... यह खुशी किसके साथ बाँटू मैं
माँ.....कहाँ है तू.....।”
अब देश जीतकर जर्मनी की सीमा में मिलाना हिटलर का जुनून बन गया। युद्धों के
कारण जर्मनी की अर्थव्यवस्था चरमराने लगी थी। हिटलर का जुनून दुनिया को
विश्व युद्ध की ओर धकेल रहा था। पर उसके सनकी स्वभाव के कारण कोई उसे यह सच
कहने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था। अगला निशाना चेकोस्लोविया बना जहां
जर्मन अल्पसंख्यक थे। उसने चेक सरकार को धमका कर उनके लिए अलग राज्य बनवा
लिया। उसके बाद उसने पोलैंड पर हमला करने का मन बनाया। पोलैंड की दोस्ती
ब्रिटेन और फ्रांस से थी । रूस भी इससे प्रसन्न नहीं था। अमेरिका भी इस
अंदेशे से भड़क गया। हिटलर ने अपना निर्णय नहीं बदला और पोलैंड पर हमला कर
दिया। ब्रिटेन और फ्रांस पोलैंड की तरफ से लड़े और दो देशों का यह युद्ध
द्वितीय विश्व युद्ध में बदल गया। तीन दिन के घमासान युद्ध के बाद जर्मनी
ने पोलैंड पर कब्जा कर लिया, पर उसे 2 लाख, साठ हज़ार सैनिकों की बली देनी
पड़ी।
हिटलर की सबसे बड़ी शक्ति उसके लोगों का उसमें अंधविश्वास था जो अब कम होने
लगा था। उसके युद्ध के जुनून से उसके जनरल इतना परेशान थे कि उसे जबरन
सत्ता से हटाने का मन बना चुके थे, पर यह संभव नहीं हो पाया। पोलैंड के बाद
हॉलैंड, बेल्जियम, लक्ज़मबर्ग, फ्रांस... हिटलर की महत्वकांक्षा कहीं रुक
ही नहीं रही थी। उसने रूस से संधि कर ली। लाखों सैनिकों का खून बहाकर उसने
फ्रांस को भी जीत लिया। ब्रिटेन ने इस युद्ध में फ्रांस का साथ दिया था तो
उसका भी बहुत नुकसान हुआ था। जर्मनी की बढ़ती शक्ति से अब रूस भी चिंतित हो
गया। उसने अपनी सेना को चौकस कर दिया। इससे दोनों देशों का विश्वास डिगने
लगा। संबंध खराब हो गए और अंततः जर्मनी ने रूस पर भी हमला बोल दिया। जर्मन
सेनाएँ तूफानी गति से रूस में घुस गईं। राजधानी मॉस्को केवल 200 किलोमीटर
दूर रह गयी। 60 हज़ार सैनिकों को बंदी बना लिया गया। इतने सैनिको के खाने की
भी व्यवस्था न हो सकी और वे एक-दूसरे को खाने लगे। जर्मनी लगातार आगे बढ़
रहा था। रूस ने अमेरिका से मदद मांगी। अमेरिका ने मना कर दिया। इस बीच
जापान ने अमेरिका के एक नौसैनिक अड्डे पर हमला कर दिया जिसके जवाब में
अमेरिका ने जापान के साथ ही साथ उसके मित्र देशों जर्मनी और इटली के
विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। रूसी नेताओं ने जनता से देश रक्षा की अपील
की। जनता ने हथियार उठा लिए। भीषण युद्ध और नरसंहार हुआ। 50 लाख सैनिक और
60 लाख रूसी सैनिक मारे गए। हिटलर की भी पूरी सेना खत्म हो गयी। 12000
सैनिक रह गए तो जर्मनी की सेना ने हथियार डाले।
अब रूस, अमेरिका और ब्रिटेन ने जर्मनी की कमर तोड़ना ठान लिया। रूसी सैनिक
बदले की भावना से भरे थे। अपने लोगों के हुए भयानक नरसंहार को वे भूलते भी
तो कैसे। वे पूरे जोश के साथ निरंतर जर्मनी की सीमा में आगे बढ़ रहे थे।
जर्मन सेनाएँ उनका सामना न कर पायीं और पीछे हटने लगीं। इस हार से हिटलर
हिल गया। 28 अप्रैल 1945 को उसे सूचना मिली कि मुसोलिनी और उसकी पत्नी को
गोली से उड़ा दिया गया है। 29 अप्रैल को उसने ईवा से, जिसके साथ उसके 12
वर्षों से संबंध थे विधिपूर्वक विवाह किया और अपनी वसीयत तैयार की। देर से
शादी करने को लेकर उसने कहा कि, बारह वर्ष के संबंध के बाद शादी करने को
अन्यथा न लिया जाये। मैं राष्ट्र की उलझनों में इस प्रकार उलझा रहा कि
परिवार जैसा कोई विचार ही मन में नहीं आया। अगले दिन उसने प्रतिदिन की
भांति ही दिन शुरू किया। यूनिफ़ोर्म में सेल्यूट किया और कहा ‘अलविदा मेरे
प्यारे वतन, अब और साथ नहीं निभा सकता’ और 30 अप्रैल, दोपहर के 3 बजकर 30
मिनट पर उसने खुद को गोली मार ली। मरने के पहले उसने लिखा कि, शत्रुओं के
हाथों पकड़े जाने के बाद अपमान झेलने से अच्छा है मैं अपने हाथों अपनी जान
दे दूँ। इस अपमान से बचने के लिए मेरी पत्नी भी मेरे साथ ही अपने जीवन का
अंत कर रही है। मरने के पहले वह बिलकुल शांत था और हमेशा की तरह ही
हिदायतें और आदेश दे रहा था।
हिटलर दुनिया को धमकाकर रखने वाले अमेरिका और ब्रिटेन जैसे पश्चिमी देशों
के लिए वही था, जो भगत सिंह अंग्रेजों के लिए थे। भारत के ये क्रांतिकारी
अंग्रेजों के कानून के अनुसार देशद्रोही थे, आतंकवादी थे। होश संभालने के
बाद से हिटलर ने एक ही सपना देखा, अपने देश के गौरव को वापस लाने का सपना।
उससे छीनकर अलग किए राज्यों को वापस जर्मनी में मिलाने का सपना। जर्मन
लोगों में आत्मविशास भरना। सत्ता प्राप्ति के बाद भी वह ऐशोआराम में नहीं
डूबा। वह दिन-रात राज्य विस्तार और जर्मनी की शक्ति बढ़ाने के लिए ही सोचता
और काम करता रहता। राज्य विस्तार का उद्देश्य जर्मनी को शक्तिशाली और चहुं
ओर से सुरक्षित बनाना था। यदि वह पश्चिमी ताकतों के सामने घुटने टेक देता
तो लंबे समय तक शासन करता पर वह कमजोर नहीं था। उसका उद्देश्य भोग नहीं था।
क्रूर था वह केवल देश के दुश्मनों के लिए, जर्मन जनता का तो वह भगवान था।
वह एक सच्चा राष्ट्रभक्त था। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि,
राष्ट्रभक्त हो तो हिटलर जैसा। हर राष्ट्रभक्त को अपनी तुलना हिटलर से होने
पर गर्व महसूस होना चाहिए। इस मौर्यवंशी आर्य के राष्ट्रप्रेम को मेरा
प्रणाम।
(मैन कैम्फ पुस्तक से )
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