जैसा कि आप सभी जानते हैं कि भारत में वर्त्तमान व्यवस्था के अनुसार सिर्फ
किसान ही एक ऐसा उत्पादक है जिसको अपने उत्पाद का मूल्य निर्धारित करने का
अधिकार नहीं है| अन्यथा फल बेचने वाले से ले कर, जूते बनाने-गांठने वाले,
मिटटी-स्टील के बर्तन बनाने-बेचने वाले, कपडा बनाने-बेचने वाले, खाने की
वस्तुएं बनाने-बेचने वाले, तेल-पेट्रोल बेचने वाले, हर प्रकार के वाहन
बनाने-बेचने वाले, किसान को खाद-दवाइयां बनाने-बेचने वाले, आम आदमी को
स्वास्थ्य सेवाएं और दवाइयां देने वाले डॉक्टर-दवाई विक्रेता आदि-आदि, सबको
उनके सामान अथवा सेवा के बाजार भाव स्वंय तय करने का अधिकार है और करते
हैं| यहाँ तक कि आपकी कुंडली-पत्र-पतरा, किस्मत, भविष्य तक बताने वालों,
ब्याह-शादी में फेरे करवाने वालों, हवन-श्राद तक करवाने वाले तक
अपनी सेवाओं के मूल्य स्वंय तय करते हैं| ऐसे ही एक मजदूर तक भी अपनी
मजदूरी खुद तय करता है| तो फिर एक किसान को ही यह हक़ क्यों नहीं?
तो मैं निम्नलिखित प्रश्नों के साथ यह चर्चा शुरू करना चाहता हूँ:
1) एक किसान को क्यों नहीं उसके उत्पाद का मूल्य निर्धारण करने का हक़ दिया जाता?
2) उसको यह हक़ मिले तो उससे किसान को क्या-क्या फायदे होंगे?
3) उसको यह हक़ मिले तो उससे किसान को क्या-क्या नुक्सान होंगे?
4) कौन-कौन से सामाजिक समूह इसमें बाधा बनेंगे या आपत्ति जताएंगे और वो
बाधाएं और आपत्तियां किस-किस प्रकार की और कैसी-कैसी हो सकती हैं?
5) इसको लागू करने में क्या-क्या कानूनी पेचीदगियां आ सकती हैं या आएँगी?
6) किसान को अपने उत्पाद का मूल्य निर्धारण करने के मसौदे का क्या प्रारूप हो?
ऐसे ही अन्य सम्भावित सवाल, जो कि आप भी इस चर्चा में भाग लेते वक्त जोड़ सकते हैं और पूछ भी सकते हैं|
विशेष: यह एक ऐसा हक़ है जो जब तक किसान को नहीं मिलता, किसान बंधुवा मजदूर
ही कहा जा सकता है, क्योंकि अपनी मेहनत के बदले दूसरों का निर्धारित किया
दाम चुपचाप पकड़ लेने वाला सिर्फ बंधुवा मजदूर ही कहलाता है| सो इस बंधुवा
मजदूरी से किसान को कैसे निजात मिले, यही चर्चा यहाँ शुरू करने का इरादा
है| उम्मीद करता हूँ कि इस सवेंदनशील मुद्दे को चर्चा के अंत और परिपक्वता
तक ले के जायेंगे और अंत परिणामस्वरूप कुछ बिंदु निकालेंगे जो हमें इस
समस्या की समझ के साथ-साथ समाधान भी दे सके|
साभार :
फूल कुमार मालिक
No comments:
Post a Comment