1857 के महाविप्लव के महानायक !
हिंदुस्तान की आजादी के पहले शंखनाद, 1857 के गदर के वक्त दिल्ली की जड़ में, अंग्रेजों की नाक के नीचे, अंग्रेजों के विरुद्ध ही मोर्चा लगाने वाला शेर-दिल वीर, जिसने 132 दिन तक दिल्ली को अंग्रेजों से आजाद रखा....तेवतिया गौत्र के जाट राजा नाहर सिंह थे, जो दिल्ली से मात्र 32 किमी दूर जीटी रोड़ पर वर्तमान फरीदाबाद जिले में स्थित बल्लभगढ़ के शासक थे....1857 के संग्राम में मुगल बादशाह ने दिल्ली की कमान इसी जाट वीर को सौंपी थी, और इनके रहते अंग्रेज दिल्ली पर कब्जा करने की सोचने से भी डरते थे...."बल्लभगढ़ में कोई भी अंग्रेज प्रवेश नहीं करेगा; उस दौर में ऐसा फरमान निकालने के लिये शेर का कलेजा चाहिये था...और यह जिगर किसी जाट में ही हो सकता था, वह जाट थे--बल्लभगढ़ के राजा नाहर सिंह....जिन्होंने घोषणा की, कि "गोरे हमारे दुश्मन हैं, इनको देश से बाहर निकालना जरुरी है.... जब आमने-सामने की लड़ाई में अंग्रेज उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाये तो अंग्रेजों ने छल-कपट, धोखे का सहारा लिया, जिसके लिये गोरे कुख्यात रहे हैं... और भोला-भाला जाट कभी दुश्मनों की चाल, उनके छल-कपट को समझ नहीं पाया, सदियों से धोखा खाना ही जैसे उसकी नियति रही है....यहाँ भी वही हुआ...राजा नाहर सिंह को मुगल बादशाह के साथ अंग्रेजों की संधि-वार्ता में मध्यस्थ की भूमिका निभाने की आड़ में शांति के प्रतीक सफेद झंडे दिखाकर बुलाया गया और धोखे से सोते समय उनकों बंदी बना लिया गया, जो अंग्रेजों की निहायत कायराना हरकत थी...राजा को बहुत प्रलोभन दिये गये ताकि वो अंग्रेजों से संधि कर लें....बस इसके लिये उनको अंग्रेजों के सामने थोडा झुकना होगा, माफी मांगनी होगी.....लेकिन खुद्दार जाट वीर को यह कैसे गवारा होता...वह वीर तो बना ही उस फौलाद का था, जो टूट सकती थी, पर झुकना तो जैसे जाना ही नहीं था...और उन्होंने समर्पण से साफ इनकार कर दिया...उन्होंने कहा कि "मेरी शहादत बेकार नहीं जायेगी, इससे भारत माँ के सैकड़ों नाहर सिंह जन्म लेंगे, जो एक दिन देश की आजादी के काम को अंजाम तक ले जायेंगे ".... और अंततः 9 जनवरी 1858 को चाँदनी चौक में इस जाट वीर ने मातृभूमि की आजादी का सपना दिल में सँजोये, हँसते हुए फाँसी के तख्ते पर झूलकर भारत माता का अपने रक्त से अभिषेक किया और एक महान् मकसद की खातिर 35 बरस की कम उम्र में ही वे मरकर भी अमर हो गये ! फाँसी के तख्ते पर इन्होंने अपने अंतिम सन्देश में देश के नौजवानों से कहा था कि " मैं तुम्हारे अंदर एक चिंगारी पैदा करके जा रहा हूँ, इसको जलाये रखना, देखना कहीं यह आग बुझ ना जाये....अब वतन की इज्जत तुम्हारे हवाले है"....अंग्रेज इस जाट वीर से, इसके मरने के बाद भी, इतने खौफजदा थे कि फाँसी देने के बाद भी इनकी पार्थिव देह अंतिम संस्कार के लिये उनके परिजनों को नहीं सौंपी गई, अंततः राजपरिवार के पुरोहित को उनके पुतले का ही गंगाजी में प्रतीकात्मक अंतिम संस्कार कराना पड़ा..... यह बात विचारणीय है कि 1857 के महासंग्राम के इस महानायक को इतिहास में वह जगह क्यों नहीं मिली, जिसके वे हकदार थे...चाहते तो वे भी रानी लक्ष्मीबाई और राव तुलाराम की तरह अंग्रेजों से माफी मांग लेते....चाहते तो ऐश-ओ-आराम की जिंदगी जी सकते थे....पर उनको यह गवारा न था...फिर भी, जहाँ एक ओर लक्ष्मीबाई जैसों को सर-आँखों पर बैठाकर महानायक की तरह महिमामंडित किया गया, जबकि वे इसके पात्र ही नहीं थे...तो दूसरी ओर राजा नाहर सिंह जैसे इसके असली हक़दार लगभग गुमनामी के अंधेरों में ही खोकर रह गये.... इस शोचनीय हालात के लिये मैं दूसरों से ज्यादा, जाटों को ही जिम्मेदार मानता हूँ, जो प्रायः अपनी विरासत, अपने महापुरुषों, अपने इतिहास के प्रति उपेक्षा और उदासीनता की मानसिकता रखते आये हैं....ऐसे में दूसरों को तो दोष ही क्या दें...और क्यों दें...??? शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले ! वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा !! आज उनकी जयंती पर शत्-शत् नमन् !!!
पगड़ी सम्भाल जट्टा
दुश्मन पहचान जट्टा
साभार पुनीत लाकरा भाई जी
दिनेश बैनीवाल ( जाटिज्म वाला जट्टा)
राष्ट्रीय अध्यक्षा अखिल भारतीय आदर्श जाट महासभा